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पांति पिय को प्यारी की

पांति पिय को प्यारी की

श्यामसुन्दर जीवन मेरे परम जीवन आह ...प्रियतम ॥ रसधाम मेरे जीवन उर सार प्यारे । आज तोहे पांति लिख रही हूँ प्रियतम ॥ श्याम तुम सदा मो में प्रेम ही देखते पर मोहन तो से का कहुं जी की अपने ॥ प्यारे तुम्हारे नेत्र तो प्रेम के अतरिक्त कुछ देख ही नहीं पाते न ।तो तुम्हारे सन्मुख मैं हूँ हीं कहाँ क्योंकि प्रेम ही तो दृश्य तुम्हारा और ये दासी तो प्रेम की गंध से भी रहित तो सदा शून्य ही पाती स्वयं का अस्तित्व ॥ पर तुम्हें प्यार करने का लोभ नहीं संवरण कर पाती तो कुछ तो होना ही पडे मोहे ॥ अस्तित्व विहीन रहुँ तो तोहे प्यार कैसे करुंगी प्यारे ॥ प्यारे क्या कहुँ तो से श्याम मैं तो सदा उस दर्पण की भाँति हूँ जो में स्वयं को तनिक सो भी रस नाहीं है देखन वाले का ही तो रूप रस सौन्दर्य वा ग्रहण कर आलोकित हो उठतो है ॥ तुम्हारा रूप तुम्हारा प्रेम तुम्हारा रस ही तो प्यारे तुम पाते मुझ दर्पण में सदा ही ॥ तुम्हारी ही वस्तु तो सदा ये ॥ प्यारे तुम्हारी एक मुस्कान मेरे रोम रोम में सहस्त्रों पुष्प खिला देती है ॥ सब कहते फूलों सी मोहे पर ये फूल कहाँ से आते प्रियतम ...॥ तुम्हारे हृदय का आनन्द ही तो प्रति रोम रोम पुष्प है प्रियतम ॥ तुम्हारी मधुर मुस्कान तुम्हारे उर का उल्लास ही पुष्प हैं ये ॥ प्रियतम तुम्हारा प्रेम सरोवर है जो देह वल्लरी है ये मेरी ॥ इस तव प्रेम रूपी सरोवर में तुम्हारे आनन्द रूपी कमल ही मेरे रोम रोम में सदा खिलते रहते प्रियतम ॥ प्यारे तुम्हारे नयनों की पुतलियों की तनिक सी थिरकन ही अनन्त पुष्पों की सृष्टि कर देती ॥ इन खिलते कमलों में से तुम्हारा सुख ही पराग और सुगंध हो नित्य प्रवाहित होता है प्यारे ॥ज्यों ज्यों तुम मुस्काते हो त्यों त्यों इनका मकरंद प्रगाढ़ होने लागे और फिर तुम ही इन सरसिजों के जीवन रस स्वरूप मधुकर हो इनका रसपान कर इन्हें सप्राण रखते हो ॥ तुम मुग्ध रहते तुम्हारे ही सुख रस से सिंचित इन नलिनों पर ॥ श्यामसुन्दर तुम्हारी एक एक थिरकन तुम्हारी एक एक चितवन नित्य नवीन सुगंध भरती है इन पुष्पों में प्यारे ॥ तुम्हारे हृदय भाव ही तो महकते इनमें से ॥ हे कृष्ण मेरे तुम्हारी रस लालसायें ही तो नवीनता मादकता स्निग्धता सुकोमलता है या प्रसूनों की ॥ तुम्हारा रस ही तो मधु बन स्रावित होने लगता प्रति रोम प्रियतम ॥ सब कुछ तुम्हारा ही स्वत्व है प्यारे ॥ जैसै सागर की लहरें उसकी सतह पर खेला करती हैं पर उन लहरों का मूल सागर के गर्भ में छिपा होवे है वैसै ही तुम्हारे ही सुख की आनन्द की लहरें ही पुष्प बन खेला करतीं मेरे प्रति रोम रोम परंतु या को मूल तुम्हारा हृदय है प्रियतम मेरे ॥ दिखतीं केवल लहरें हैं सागर गर्भ नाहिं सो सबन को या प्रसून ही दीखें पर इनका परम उद्गम तो तुम हो प्रीतम ॥ प्रेम सरोवर विकसे सरसिज प्यारे तेरे आनन्द के ॥ नित्य नवीन तृषा नित्य नवीन तृप्ति नित्य नवीन सुगंधि
फूलन की ॥

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