अलिमन भरणी श्रृंगारोत्सव श्रीप्रिया प्यारी -2
दोउ नैननि चमकत अनगिन चंद।
रस विहरै अधिकाई प्रेम की,झरै रस नैनन-सौ आनंद कंद।
थके आरस डबडब भरै नैना,तऊ दीखै पीवन आपस द्वंद।
डूबे गहरी तरंग नैन की,फसै दोउ परिहै रूप के फंद।
बहुतई थोरि "प्यारी" किन्ही बरणन,कही परबत हितई चेटी छंद।
हम सुनते है न कि रास के समय किशोरी की पायल को कोई नूपुर निधिवन में छूट गयो तो अगले दिन सखियाँ आती उसे ढूंढने... क्यों आवश्यकता है इसकी सर्वलोक माधुर्येश्वरी साम्राज्ञी के पास पायलों नुपुरों का अभाव नहीं । पर उनके यह आभूषण जड़ आभूषण नहीं... वे तो श्री प्रिया की निज अंग स्वरूपा सखियाँ सेविकायें हैं ...! जिनका विछोह जितना उनके स्वयं के लिये कष्टदायी है उससे अनन्त गुणा लाडली के लिये है... सो वे ही आकुल हो ढूंढती उन्हें... वे ही ढूंढ रही सदा से माया जगत में खोई हुयी अपनी प्राण प्यारी प्रीत-भाव सखियों को ॥ उनकी व्याकुलता... उनकी प्रतीक्षा हम अनुभव नहीं कर सकते... ! उनकी व्याकुलता का ही बिन्दु...सर्वभुवन चित्त में... उपजा नेह का परिणाम रूप है ।
उनके हम सबन्ह के प्रति अपार प्रेम की कोई नन्हीं सी कणिका जब भावसाधन से... विरहानल से... शुद्ध हुये हमारे हृदय में प्रतिबिंबित हो झिलमिलाने लगती तो ही प्रेम का वास्तविक स्वरूप आत्मसात हो पाता है (तब हमें अनुभव होता हमारा स्वरूप किन मंजरी जु का प्रतिबिम्ब है.. भावराज्य के अपने मूल स्वरूप के अनुभव से एकात्म होना ही राधादास्य उपासना है , यह उपासना भी किन्हीं गौरवमयी भावनाओं के हृदय की लालसा हो पाती है...) निर्मल प्रेम की समस्त वृत्तियाँ श्रीराधा रूपी महाभाव सिंधु की छोटी-बडी़ तरंगमालायें हैं... यही तरंगमालायें ही इन निकुंज सखियों सहचरियो-मंजरियों-किंकरियों-सेविकाओं के रूप में युगल सुखार्थ नित्य निकुंज में लहराती रहती हैं... ये रस तरंगे नित्य अपने प्रेम रस द्वारा युगल का रसाभिषेक किया करती हैं... । चारों ओर से बहती ये रस लहरियाँ मध्य में अवस्थित अपने केंद्र बिंदुओं (रसयुगल )पर सेवारस वर्षण सौभाग्य से स्वयं भी सेवासुख रूपी महारस में निमज्जित होती रहतीं है । एक ही महाभाव मादनाख्या रसनिधि सिन्धु की अनन्त रस लहरें रस वृष्टि करतीं निज स्वत्व पर और स्वयं शत्-सहस्र कोटि नव-नव भावरस भासित हो उठती इस वर्षण से ॥ या कहे... युगलरूप दिनकर पर भावसेवा वर्षण करती अनन्त रश्मियाँ नव-नव सुरभित भाव से आह्लादित होती । यह युगल रूप दिनकर भी उनके रसार्चन से प्रमुदित हो नित नवीन शोभा को पीता जाता...
जानते है ही हम कि श्रीप्रिया की यह दिव्य श्रंगार रूपी सखियाँ प्रियतम मन की अनन्तभावनायें हैं प्रिया सेवा की लालसामयी... (जी, प्रियतम मन जो उद्भवित होता उनके नाम- लीला-रूप से एकात्म होने पर भावित हो पाता... हरे कृष्ण महामन्त्र से जीव-भाव कृष्णासक्त होने पर पूर्ण लोलुप्ता और कृपा के संयोग से कृष्ण की आसक्ति ह्यो जाता...) प्यारे के हृदय की अनन्त कामनाएँ ही मूर्तिवंत हो प्यारी की दिन रैन सेवा करती प्रेममयी, अहा । जिस भावाणु के उद्भव में युगल प्रीत है , उसमें युगल सुख से शेष कहीं कुछ रहता ही नहीं... !! प्रियतम के हृदय भाव ही प्रिया के श्रृंगार और प्रिया की प्रेममयी गहन-भावनायें ही प्रियतम का दिव्य श्रंगार हैं...युगल का परस्पर श्रृंगार यह सेविकाएँ । प्रियाजु के रस सेवा भावनायें कृष्ण-प्रेम आधिक्य सखियाँ होतीं...और प्रियतम की गहन आंतरिक सेवा भावनायें श्री राधा प्रेमाधिक्य सेविकाएँ (सखियाँ) होतीं... इनके परस्पर प्रेम-सेवा वासना का कोई ओर छोर ही नहीं है ! दोनो इतने प्यासे इतने प्यासे कि .........उसी तृषा में दिव्य-भावराज्य नित नवरंग रूप में सज रहा होता ! कहीं छोर ही नहीं इस गहनतम् अनन्ततम् तृषा का... तृषा को भी तृषा लगी हो जैसे... प्रियतम सुख तृषा । तृषा-तत्व को जीवन देने वाली भावोद्गमा-श्रीप्रियाजु की तृषा... वैसै कहा जावे तो समस्त सुभाव-गुणों को उनका तत्व दान करने वाले ही ये दोनों ही हैं... सदा समस्त गुणों के मूल उद्गम-आश्रय दोऊ यह किशोरी-किशोर । सभी गुणों के आदि जनक दो रस कलेवर... कहाँ तक कितना ही कहो पर पिपासा नहीं शांत होती क्योंकि कुछ भी कहा जावे वो इनके स्वरूप का अणु भर मात्र भी परिचय दे ही नहीं सकता कभी...
मोहे तो ऐसा लागे इनके दर्शन पा-पाकर कि प्रिया के मनोभाव प्रियतम मुखमंडल-वपु पर झलकते और प्रियतम के प्रिया के नख-शिख पर प्रकाशित होते जैसै सागर की लहरें मचलती हैं वैसै दोनो के चंद्रकमल मुख पर परस्पर के मनोभाव अठखेलियाँ कर रहे... नित भाव लहरियों का आवागमन परस्पर भीतर और बाह्य...! महाभावों की अनन्त लहरों का ये खेल नित्य चलता रहता ! नित नव प्रकाश से नित नव-रस से ये दो सघन प्रेम पुंज स्वर्णिम छटा बिखेरते रहते निकुंजों में , निकुंज रूपी सखियों के हृदयों में ॥
... जैसै सागर में झलकते चंद्र के दो प्रतिबिंब लहरों के ऊपर विराजमान होकर परस्पर अठखेलियाँ कर रहें हो ...ऐसे ही ये दो परम निर्दोष-निश्चल-कोमल कुसुमित अति सुकुमार शिशु रस-क्रीड़ा कर रहे *॥ परस्पर-मुग्ध हुए परस्पर-आधीन यह परस्पर-जीवन से परस्पर-प्राणों में परस्पर-सुख हुए परस्पर-स्पंदन को धारण किये हुये किलकते हुये से दो रस खिलौने ॥*
प्रियतम के कमल-लोचन , कुटिल भौहें घुंघराली-अलकावलियाँ मधु भंडार यह सुकोमल-अधरदल रहस्यमयी मुस्कान सब कुछ प्रिया के हृदय उल्लास को ही निर्झरित करतीं सदा (प्रियाप्रेमासक्त पिपासु को प्रियतम रूपमाधुरी रसास्वदन सुख प्रियाजु को भोगवत निवेदन सेवा समझ आवें तो सरल रूप प्रियाजु की करुण वर्षा से वह भीग जावें) ...प्रियतम के रोम-रोम से टपकता रस बिन्दु प्रिया-हृदय की गहन रस निधि ही तो है... प्रियाजु हृदय का प्रत्येक स्पंदन ही तो रसराज प्रियतम का रस बन छिटकता ॥ (अनुभवगम्य यहीं भावनाएँ रसिक वाणियों में युगल-सुख-प्राण-लिपिवत)
...श्री प्यारी के हृदय के गहनतम निज-भावो को कहीं सजीव पढना हो तो प्रियतम के कमल दल लोचनों में पढ लो । वहाँ सदैव स्पष्ट दिखते वे...ये नयन मात्र थोड़ी न हैं ये तो प्रिया हृदय का दर्पण है। प्रिया-हृदय-रस-सुधा ही तो इन सरसिज युगल का मकरंद है । और यदि प्रियतम नेत्र रूपी पात्रों से पढने पर पीकर तृप्ति न हो तो प्रिया हृदय गहनतम् प्रेम सदा छलकाते दो अति सुकोमल मनहर अधर पल्लवों से अपने हृदयपात्र को बिछा दो... प्रिया का ह्रदय उतर आयेगा तुममें... तृषित । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी । (श्रीवेणु रूप निर्मल प्रियतम अधरामृत का श्रवण पुट से सीधे हृदयपात्र में झरना सम्भव है... तत्क्षण शेष इंद्रिय भी प्रियतम रूप सुधा में निमज्जित होवे तो श्रीप्रियाजु का हृदयोत्सव श्रीविहार अनुभव प्रकट हो जावें )
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