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बिनु सत्संग विवेक न होई

बिनु सत्संग विवेक न होई

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सत्य का सँग , सत्य तो नित्य सँग है । अपितु वहीं सँग है सत्संग । परन्तु आज सत्संग मनोरंजन हो गया ।
मानस जी की यह पंक्ति सत्संग की महत्ता अमूल्यता की उद्घोषणा हैं । सत्संग अर्थात् सत्य का संग । परंतु सत्संग का वास्तविक स्वरूप पहचानने और उससे लाभान्वित होने के लिये भी विवेक की आवश्यकता है । सत्संग एक प्रकाश है जिसमें जीवन का वास्तविक उद्देश्य उद्घाटित होता है , प्रकाशित होता है । परंतु कई बार पतन के गर्त में धंसा जीव इतना दिग्भ्रमित होता है कि वह वास्तविक प्रकाश तथा दूर से प्रकाश की छद्म अनुभूति कराते अंधकार में विभेद कर पाने में भी पूर्ण अक्षम हो जाता है । सत्संग से विवेक प्राप्त होता है परंतु उस विवेक के लिये भी किंचित पात्रता अपरिहार्य है । वर्तमान समय में चहुंओर देखा जा रहा है कि कथायें सत्संग की बहुतायता है परंतु तनिक सूक्ष्म दृष्टि से देखा जावे तो जानने में आयेगा कि  क्या जिस ओर जनमानस बढा चला जा रहा है क्या वह वास्तविक सत्संग है ! सत्संग तत्व की चर्चा है , धर्म का चिंतन है । तत्व चाहें प्रेम का हो अथवा ज्ञान का , बिना तत्व के समस्त चिंतन सारहीन है । सामान्यतः कथा , प्रवचन , उपदेश , भजन गान सबको एक ही समझ लिया जाता है , परंतु इन सबमें पूर्ण विभेद है । कथा केवल श्रीभगवान की लीला रसास्वादन है जो वक्ता और श्रोता दोनों को रस अनुभूति करवातीं हैं । प्रवचन वह नीतीपरक ज्ञानपरक मार्गदर्शन हैं जो मनुष्य को जीवन के वास्तविक गंतव्य की ओर निर्देश करतीं हैं । भजनगान ,सरस भावहृदय की भावांजलि  हैं जो अपने इष्ट को अर्पित की जा रही । परंतु आज हम इनके यथार्थ रूप से अनभिज्ञ सबको मिलाकर एक रूप होते देख रहे । भगवद् कथाओं के नाम पर मनोरंजन परोसा जा रहा । मनोरंजन अर्थात् मन का रंजन ! वक्ता श्रोताओं के कल्याण की चिंता तज उनके मनो के रंजन में संलग्न हो रहे । कहा वह जा रहा जो लोग सुनना चाह रहे । यदि मनुष्य स्वयं अपने कल्याण को पहचान पाता तो सत्संग की आवश्यकता ही न थी । सत्संग मार्गदर्शक की भूमिका में है परंतु यदि मार्गदर्शक वास्तविक मार्ग दिखाने के स्थान पर ,जिस ओर दिशाभ्रमित मानस स्वतः गतिमान है उसी पथ पर ले जावे तो यह कल्याण के स्थान पर पतनोन्मुखी हो जायेगा । यदि प्रकाश और अंधकार को हम स्पष्ट भिन्न रूप अनुभव कर पाते हैं तो वहाँ अंधकार से प्रकाश की ओर गति का मार्ग खुला है । परंतु विकट स्थिती वह है , जहाँ ये भेद ही मिट चुका है , अंधकार ही प्रकाश अनुभूत होने लगे तो गति होगी किस ओर ..........यह आत्मचिंतन का समय है कि कहाँ अवस्थित हम और किस ओर गतिमान ... ... ... तनिक स्वाध्याय की आवश्यकता है । हम दिग्भ्रमित इसलिए और अधिक हो रहे कि अपने कल्याण का समस्त दायित्व तथाकथित गुरु जनों पर छोड दिया हमने । हम उनके हैं , उनके हो गये तो बस अब क्या आवश्यकता हमें ... ...यदि इन सत्संगों में पहुँचने से पहले अपने घरों में जो परम अमुल्य सत्संग उपलब्ध हमें उनका स्वाध्याय करें , तो हम वास्तविक सत्संग का स्वरूप हृदयंगम कर सकें  और यूं भ्रमित हो सत्संग के नाम पर मनोरंजन को पहचान पावें ....
*एक तो सत्संग को ब्राण्ड नहीं बनाना चाहिये ।

*बहुत ज्यादा धन खर्च से सत्य उद्घाटित नहीँ होगा , यदि धन से सत्य को रिझाना हो तो अपव्यय का सदुपयोग हो ।

*पूर्व में 40-50 वर्ष पूर्व साधारण रीति से गूढ़ सत्संग हुए है ...

*सत्संग स्टेटस सिम्बल हो रहे ...करपात्री जी के बहुत से आयोजन बहुत छोटे गाँवो में हुए है ।

*सत्संग में आज समसामयिक घटनाएं कही जा रही सँग ही समय कम होता जा रहा , मुझे लगता है कि श्रीमद्भागवत जैसे महापुराण रचित ही कथा क्रम में है ...अगर भागवत जी को आप सत्य में रस मानते है तो नमक मिर्ची की जरूरत ही नहीं । पीठ पर बातें करने की अपेक्षा क्रमिक कथा को समय दिया जावे ।

*मैं उस कथा को भी असफल मानता हूँ जहाँ श्रोता जिनकी कथा कहीं गई उनकी अपेक्षा जिन्होंने कथा कहीं उनके ही शरणागत हो जावें । कथा भगवत रस हो , स्व महिमा नही ।

*प्रपन्च जिनका बना हुआ वह गहन सन्दर्भ में भी प्रपन्च चिंतन कर मनोरंजनात्मक ही कथित सत्संग कर रहे है ।

*सत्संग से किसी एक इंद्रिय को नहीं , सर्व इंद्रियों को मात्र श्रवण से ही सुख मिल जाना चाहिये ।

*सत्संग विशुद्ध हुआ तो सर्वता को शुद्ध किया जा सकता है । सत्संग का निर्मलीकरण हो , भगवत सुख के अतिरिक्त अन्य कोई भावना न हो ।

*कथा को दायरे से बाहर कहने सुनने के लिये श्रोताओं में भी जागृति आवश्यक है । ...नवरस का लोभ हो , ना कि श्रोता वक्ता को कहने की सूची में बांध दे । आज भी श्रीमद्भागवत जी के कई सोपान कहें , सुने नही जाते ।

मनन कीजिये आप जीवन का तमाशा बनाने के लिये मनुष्य है या सत्य के सँग को अनुभव करने के लिये ।
...    ...क्या सत्य का सँग आपको अनुभव हुआ ।।। तृषित । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी ।

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