श्रीप्रिया रूप
नवल नवेली अलबेली सुकुमारी जू कौ ,
रूप पिय-प्राननिं कौ सहज अहार री ।
बिंजन सुभाइनि के नेह घृत सौं जु बने,
रोचक रुचिर हैं अनूप अति चारु री ।
नैनहिं की रसना तृपित न होति क्यौंहू ,
नई-नई रुचि 'ध्रुव 'बढति अपार री ।
पानिप कौ पानी प्याइ पान मुसिक्यान ख्वाइ ,
राखे उर सेज स्वाइन पायौ सुख सार री ॥
श्रीप्रिया रूप आहा !.....अद्भुत अनिर्वचनीय अद्वितीय कितनो बखानो जावे पर याहि को कोऊ ओर छोर ही नाय है । पर या रूप सौंदर्य को सबसे बडी विलक्षणता या को असमौर्ध्वता है । माने नित्य प्रतिक्षण वर्धित होता हुआ रूप । याहिं तो प्यारी जू नित्य किसोरी हैं । नित्य नूतन रूपरासी नित अनन्त की और ही वर्धमान हो रही । पर या रूप की एक और विशेषता है जो त्रिभुवन में द्वितीय है ही नाय कहीं और ......प्यारी कू रूप प्यारे को अहार है । कैसो अद्भुत रहस्य है या जो निकुंज माहिं नित्य सर्वोदघाटित है । यह श्रीनिकुंज रहस्य है । प्यारी को रूप प्यारे को अहार । प्यारे छबीले लाल जू के रसीले प्राणन को पोषन और कछु नाहीं यही श्रीप्यारी जू की रूपमाधुरी है । रसराज हैं वे, रस ही देह, रस ही सत्ता रस ही पोषन है वा को । ज्यों समस्त चराचर की नाना भाँतिन की देहों के नाना आहार विहार हैं या चिन्मयरसविग्रह निकुंजबिहारी लाल जू को पोषण तो बस प्रेमरस ही है , जो रसनागरी महाभाविनी प्रेमअधिष्ठात्री श्रीकीर्तिनन्दिनी सों ही मिले है या को । नित्य नवीन रूपसुधामाधुरी ही जीवन है प्यारे को । श्रीनागरी की प्रेमसुधाभावित रूपरासी ही तो प्राणों को सरस करे हैं नागर जु के । रसवदना श्रीश्यामा जू की अनन्तानन्त चपल रसमयी भाव भंगिमाएं नाना तरह के सुस्वादु व्यंजन हैं । कोई ये सोचे कि यह कोई अतिशयोक्ति कही जा रही या कल्पित भावोक्तियाँ तो हम सब नित्य ही तो कह रहे सुन रहे कि भगवान भाव के भूखे होवें हैं , भाव को ही भोग लगावें हैं ,भाव ही आरोगें हैं । जब स्वयं महाभाव ही विग्रह रूप हो सेवा करें तब श्रीश्यामसुंदर के सुख की क्या कही जावे ! माधुर्य शोभना सुरत रोचना श्रीललितलाडिली को सुवर्णलतिका सी देहवल्लरी को मात्र देह न जानियों । या तो प्रेम को महारासी है । प्यारी जू की तिरछी अलबेली भाव भंगिमायें, गमन आगमन ,नर्तन ,नूपुर सिंचन, रसीली चितवन कबहूं दक्षिण तो कबहूं वाम भाव ते विलोकन अवलोकन ,पलकन की सुअंगन की लास्यमयी थिरकन सबहीं प्रेम रूपी घृत सों बने ,पिय रुचि अनुरूप सेवामय व्यंजन हैं । ये ऐसे मनोहारी सुस्वादु रसपगे व्यंजन हैं जिन्हें आरोगते आरोगते प्यारे के नयन रूपी रसना कभी तृप्ति को नहीं पाती । नयन रसना ! हाँ नयन रसना .....रूप रस पान हित नयन रूपी रसना ही तो अभीष्ट है न । ऐसो रसमय हैं ये भोग कि नित्य नवीन ही रुचि बढती जावे है । क्यों ....क्योंकि रस ही नित्य नवीन इनमें । जो अभी है वह पहले न था जो कल होगा वह आज नहीं ........क्यों , क्योंकि श्रीप्रिया का प्रेम अर्थात् पियसुख लालसा सदा वर्धमान है । कितना भी सुख होव प्यारे को प्यारी कबहूं तृप्त ही नाय होतीं । सदा एक ही प्राणअभीप्सा और और और ......। पिय सुख की यह गहन तृष्णा ही श्रीप्यारी जू को स्वरूप है । तृष्णा इसलिये कहे कि तृषा की सीमा होती है । हमें तृषा है जल की , तो जीवन में अन्यत्र संलग्न होते हुये भी उस तृषा की अनुभूति की जा सकती है , होती ही है पर यही तृषा जब सीमा को पार कर जाती है तब उदय होता है तृष्णा का । तृष्णा वह जब केवल और केवल यही जीवन हो जावे । ऐसी तृषा जो शेष सभी कुछ की विस्मृति करा देवे वह है तृष्णा । श्रीकिशोरी जू श्रीश्यामसुंदर के सुख की इसी तृष्णा की घनीभूत मूर्ति हैं । कृष्ण सुखैकलालसा के अतिरिक्त अन्य भी कुछ सृष्टि में अस्तित्व राखे है वे जानतीं ही नहीं हैं । तो श्रीप्रिया की पियसुख लालसा से उपजीं रसमयी चेष्टायें प्यारे लाल जू के नयन रूपी रसना को नित्य नवीन स्वाद का रस का पान कराने में निरत रखतीं हैं । साथ ही यह रस यह स्वाद यह रुचि प्रतिपल संवर्धित भी होती रहती है । अर्थात् नवीनता के साथ साथ रुचि का वर्धन भी होता जाता है । श्रीराधिका प्रेम की यही चमत्कारिक विशेषता है जा से प्यारे लाल जू नित स्वयं को अति असमर्थ पाते हैं । वे अपनी संपूर्ण सामर्थ्य से भी , श्रीप्रियारूपी अनन्तरससिंधु का यथेष्ट रसावगाहन नहीं कर पाते हैं । जब चारुलोचना श्रीप्यारी जू निज रूपसुधा के जल पिलाय , मुस्कान रूपी ताम्बूल बीटीका प्यारे को अर्पित की .......आहा मुस्कान रूपी ताम्बूल ! श्रीकिशोरी की मधुरतम मुस्कान .....या ते मधुर और कछु होय सके है क्या । श्रीश्यामसुंदर की प्राणमूरि श्रीराधिका की मधुर मुस्कान .....समस्त सुखों का रसों का सार यही मुस्कान । यही ताम्बूल देकर निज हृदय-शय्या पर शयन कराती श्रीलाडिली जू ..... श्रीप्रिया हृदय .....महारससागर जामें सुधबुध बिसराये प्रियतम डूब जावें हैं । स्वयं की ही सुधि से विस्मृत हो जावें हैं तो शेष क्या स्मरण रहेगा फिर । श्रीप्यारी जू की हृदय रूपी सेज ही तो विश्राम स्थली लाल जू की । प्रेम का ऐसा लहराता सागर हैं श्रीप्रिया श्रीप्रिया श्रीप्रिया ..........
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