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प्रेममय अभिन्न परस्पर अनुभव कैसा ??

*प्रेममय अभिन्न परस्पर अनुभव कैसा ??*

प्रेम की अभिन्नता अनुपम है जैसे दो फुलों में एक जीवन । श्यामाजू सेवा-सुख श्यामसुन्दर की । मनमोहन से एक होने को मन ...  एक होना पर कैसा एक होना ... सखी उनके नेत्रों में मेरे नेत्र भरे हों , उनके अधरों में ही मेरे अधर समाये ... उनके स्पर्श में ही मेरा स्पर्श , उनकी अनुभूति में ही मेरी अनुभूति हो उनकी मति में ही मेरी मति उनकी गति में ही मेरी गति ...  ...  उनसे पूर्ण एकाकार ही हो रहूं ... ऐसा सोचते सोचते फिर लगे कि उनकी देह ही मेरी देह हो रही ... उनके समस्त अनुभव ही मेरे अनुभव हो ... ... वो जो गुंज माल पहनें हैं ...वह कैसा सुख दे रही उन्हें ... आह ऐसे सुगन्ध गुंजमाल की आ रही जैसे श्यामा ने धारण की हो । फिर और आगे प्रगाढ़ कि उनके नेत्र मोहे देखें तो कैसा लग रहा उन्हें फिर उनके अधर  क्या सुख पाते ...। मेरे स्पर्श से क्या सुख  उन्हें ... ऐसा उनसे एक होने पर ही तो पता चले न कि उनमें मैं वही बन रहूँ जब तो ....। श्यामसुन्दर की हिय स्थिति ही तो जीवन प्यारिजु को ।
...फिर उनके हृदय की व्याकुलता से अपना ही नाम पुकारना...  प्यारी जू , श्यामा जू , स्वामिनी जू (... अपने प्रियतम की पुकार में अपने पुकारने की यह स्थिति क्या भोग समझ पायेगा ... सम्पूर्ण खो जाना स्व को ...सम्पूर्ण हो जाना प्रियतम में ...प्रियतम से ... प्रियतम तक ...प्रियतम के लिये ...)  सखी..  कहाँ वे हैं ...और कहाँ मैं ... ये पता ही नही ! ...कौनसे वे ...कौनसी मैं पता ही नहीं ... क्या ! दोनो में ... पर दोनो कहाँ पता ही नहीं ...
तो सोचिये ...क्या अपना ही नाम अपने ही मुख से ...कोई क्या सोचेगा पर ये तो उनके हृदय की पुकार है ...लेकिन ये किसी को कैसै पता सो सब सोचे कि पागल हो गयी है कि प्रियतम की जगह अपना ही नाम पुकार रही ...। ...फिर और गहरा कि उनका विरह अनुभव हो रहा लग रहा कि जैसै रोम रोम जल रहा मेरा किसके वियोग में स्वयं मेरे अपने ही वियोग में ... ...ओह कितनी पीड़ा सहते वे मेरे लिये ॥ (प्रियतम के विरहानल का पान कर वह अनुभव कर रही श्यामसुदंर के भीतर श्रीप्रियाजु का विरह ...) उनके विरानल को अनुभव कर जल रही मैं ... असहनीय है यह ॥ तत्क्षण उनके हृदय से लिपट ये विरहानल शान्त करूँ उनका... (प्रियतम हृदय का ताप अनुभव हुआ श्रीप्रियाजु को शीतलता अनुभव होवे प्रियतम को ... यहीं प्रेम का जीवन रहस्य ) ...सदा नेत्र सन्मुख ही बनी रहूँ । सदा संग  ही रहूँ उनके आलिंगित...मिली रहूँ यूँ कि क्षणिक विरहानल कष्ट उन्हें न हो प्रति रोम प्रियतम का मैं ही तो हो रही हूँ ... ... ...
... ये दोनो इस तरह एक में एक है कि जो भी प्रियतम अनुभव करते मानो जैसे वे अपने चरण कमल धरा पर रखे तो वे क्या स्पर्श अनुभव करते वो अनुभव प्रिया जू के चरणो मे होता और प्रिया जू जैसै जब चरण धरें तो उनकी अनुभूति प्यारे को होती ॥ एसे ही इन दोनो की संपूर्ण स्थिती है परस्पर को ही अनुभव करते दोनो स्वयं को कदापि नहीं ...  स्वयं को जानते ही नहीं परस्पर को ही स्वयं जानते पूर्ण रूप से ॥ परस्पर का सुख ही सुख परस्पर का विरह ही विरह अपना सब कुछ ही परस्पर ॥
यही कारण है कि जब प्यारे किसी अन्य गोपी का संग करते तो प्रिया उससे प्राप्त सुख पूरा पूरा अनुभव करती और प्रियतम के सुख की कमी को जान व्याकुल हो विरहानल में जलती जो गीत गोविंद मे वर्णित विरह है क्योंकि अन्यों से प्यारे को उतना सुख नहीं ॥ तो वस्तुतः प्यारे के सुख का अभाव ही श्री प्रिया की  विरह पीड़ा है ...
जैसै संसार में हम स्वयं को अनुभव करते न वैसै वे दोनो परस्पर को ही अनुभव करते
... श्यामा का अनुभव प्रकट होता स्यामसुंदर हिय में । ...श्यामसुन्दर का अनुभव प्रकट होता श्यामा हिय में ... तृषित । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी ।

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