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कैसै हैं वे ... (पियप्यारी हमारे)

कैसै हैं वे ... (पियप्यारी हमारे)
। परम अदभुत-अकथनीय- अनिर्वचनीय-अद्वितीय और न जाने क्या क्या... इतने भोले कि सृष्टि के समस्त शिशुओं का भोलापन उन्हीं के तो सीकर का परिचय कराता , आहा कोमलता के सार ...।  इतने प्रेमी कि तकते रहते कि कोई जीव बस एक बार पुकार भर ले उन्हें ,स्वयं को देकर ही चैन उन्हें अब ॥ उनकी व्याकुलता , उनकी प्यास , उनकी कामना , क्या उतर सकता किसी के हृदय में उसका एक कण मात्र भी ??  जो वे सहते हम जानते ही नहीं तभी तो विमुख उनसें । उनके मुखमंडल को देखहूँ तो क्या लगता वह वाणी या शब्द सामर्थ्य से परे है ... कैसे कहूँ ... अनन्त युगों की प्यास... अनन्त कोटि कल्पों की प्यास छलकती रोम रोम से उनके... तृषा के मूर्त स्वरूप यह सुकोमल ...॥ सदा प्रेम पियासे पियाप्यारी हमारे ॥ करोड़ों करोड़ों आत्म को गुणित कर भर दूं  रोम रोम में तो भी पूरित न हो उन्हें ऐसी प्यास ...प्रीति पिपासा । क्यों मुझे दिखती उनकी प्यास यह .??? क्योंकि कोई देखना ही नहीं चाहता उन्हें प्यासा ... सब केवल पूरा , भरा ही पाते उन्हें क्योंकि जो भरा वही आपको दे सकता जो स्वयं प्यासा वो कैसै देगा और जगत को तो केवल लेना आता ॥ प्यासे देखोगे तो देना होगा न । लेने की वृत्ति देना कैसै सीखे ॥ यही प्रेम की पाठशाला है । जितना देने की (त्यागने की नहीं ) चाह बढेगी उतना ही लेने वाले की प्यास बढेगी ॥ श्री राधिका ही इस चाह की परिपूर्णतम परिसीमा हैं सो वहाँ प्यास भी तदनुसार ही है उनकी ॥ वहीं पूर्ण अतृप्ति उनकी । अतृप्ति ?जी हां अतृप्ति क्योंकि अतृप्ति ही उनका स्वरूप वहाँ ॥ सकल ब्रज लीला अतृप्ति ही की तो लीला है । नित्य प्यासे नित्य याचक वहाँ वे । मैया बाबा दाऊ दादा सकल सखा गोप ग्वाल बाल समस्त गोपियाँ सबकी याचना ही तो कर रहे वहाँ ॥ पर सबकी सीमायें देने की सो फिर प्यास ॥ केवल एक ही आश्रय जहाँ नित्य अपने पूर्णतम स्वरूप को जी पाते वे ... उनकी परम विश्राम स्थली उनकी पूर्णता उनका स्व अधिष्ठान उनकी महा समाधि... शेष तो सब जगह आवरण में रहना उन्हें बस वहीं पूर्ण निरावृत वे । अपने मन की करने को स्वतंत्र बाकी तो सब जगह भक्त वांछाकल्पतरु होना उन्हें ॥ उनके जी की कौन पूछता श्रीप्यारिजु राधा के सिवा सब निज-निज भाव ही आरोपित करते उन पर और वे इतने सहज इतने प्रेमी कि कहते जो तू चाहे जैसा तू चाहे वही मेरा सुख सौभाग्य ॥ पर उनका मन उनका हृदय उनकी इच्छा कौन उतरे इतना भीतर कौन कहे कि तुम क्या चाहते प्यारे ॥ सब बडे भाव से सेवा करते उनके सुख को ही करते पर उनका मन नहीं पढ पाते ॥ हमारा मन कि तुम्हें सुख दें कि खीर बनाई तुम्हारे लिये परम भाव से पर तुम्हारे मन का क्या जो इस क्षण खीर नहीं छाछ चाहता ॥  पी लो न देखो कितने प्रेम से बनाई है हम प्रेमी हैं तुम्हारे न पियोगे क्या ॥ ला कितना प्रेम तुझे मुझसे अभी पीता हूँ कि मेरे पीने से तोहे सुख होगा न ॥ तो जरा देखिये प्रेमी कौन वहाँ हम या वे ॥

क्या कहुं  इस पर । कल्पना ही लगती जगत को । जो जैसा स्वयं उसे सब वैसा ही लगता न । जगत स्वप है न ... तो इसे सब वही लगता ... स्वप्न ॥ उनके संबंध में चित्त में जो भी आता वह पहले ही वहाँ उपस्थित नित्य ॥केवल कृपा से यहाँ उतरने लगता मन में हृदय में ॥ हम अनित्य और वे नित्य उनकी लीला नित्य पर हम कल्पना की कल्पना करते उनकी लीला के संबंध में  ॥ भाईश्री जी कहते हैं कि उनकी लीलायें अनन्त हैं नित्य हैं , पहले से ही हैं , जैसै सिनेमा  , केवल पात्र के समक्ष तद्पात्रतानुसार दृश्य हो जाती हैं जिनकी जैसी पात्रता वैसी ही लीला प्रकट होती ॥

लीला की गहनता भी पात्र पर निर्भर । ऐसा ही है जैसै वृष्टि बरस रही नित्य पर घडा उलट कर रखा है और घडा सीधा होते ही भरने लगता ॥

उनके स्वभाव को मनन करने हेतु दिव्य अंतःकरण चाहिये जी क्योंकि मायिक तो सह ही नहीं सकता अणु मात्र भी ॥ मैं तो मांगहूँ कि दिव्य हृदय , दिव्य अंतःकरण दे दो कि तुम्हें हृदयंगम तो कर पाऊं ॥ मेरे पास तो उपकरण ही नहीं तो तुम्हें कैसै ......॥ जितना प्रेम करना चाहूँ उतना धारण करने की पात्रता ही नहीं , जीव हूँ न क्षुद्रतम , तो असीम को कैसै धारण करुं ॥ इस हृदय की तो सीमा है न । बिंदु में सिंधु कैसै भरे जी । आकुल हो उठूँ हूँ ॥ क्षोभ होता अपने जीवत्व पर कि क्षुद्र क्यों , अनन्त क्यों नहीं कि अनन्त प्रेम करुं तुमसे । मोरी धारण शक्ति भला है ही क्या पर प्यास इतनी दे दी कैसै निवारण करुं इसका ॥ तुम्हारी छवि के अणु मात्र को ही अनन्त कोटी प्राण पिघला कर पिलाय रहुं । मैं कब कहूँ इन्हें कि तुम प्रत्यक्ष आओ पर अनन्त कोटी प्राण कहाँ सो लाऊं ?करोड़ों कल्पों तक इस छविरूप पर ही स्वयं को उडेलती रहूं पर क्या करोड़ों कल्प हैं मेरे पास  ...  क्या कोटि कोटि प्राण हैं मुझपे ? नहीं न तो क्या करुं , कैसै प्यास बुझाऊँ हृदय प्राण आत्मा की ॥ न जाने कितनी प्यास ??? न जाने कैसी-कैसी प्यास पर निवारण कुछ नहीं , यही दाह मेरे हृदय का ... प्रियतम की अतृप्ति... कब बुझायेंगें ये प्यास । पर पता मुझे कभी बुझाई भी तो अनन्त कोटि बढना ही इसे प्रतिपल फिर ॥ यह तृषा रोके नहीं रुकती ...अनन्त प्रेमसिन्धु प्रियतम की अनन्त रसपूर्णा अनवरत तृषामयी प्रिया... श्रीप्रियाजु ।। तृषित । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी ।।

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