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प्रेम .....निष्काम अथवा सकाम

प्रेम .....निष्काम अथवा सकाम

निष्काम प्रेम ....॥ प्रेम कभी निष्काम हो सकता क्या ॥ प्रेम तो एक ऐसा समुद्र है जिसमें नित्य नवीन कामनाओं की लहरें प्रकट रहतीं हैं ॥ यदि प्रेम रूपी सागर में कामना रूपी लहरें उदित ना होंवें तो उस प्रेम सिंधु की समस्त आकर्षणता ही समाप्त हो जावेगी । ये कामना रूपी तरंगे ही तो सौन्दर्य हैं इस सिंधु की ॥ शांत सागर शांति का अनुभव करा सकता है परंतु आनन्द का नहीं ॥ इस सिंधु की समग्र रसमयता इसकी अनन्तानन्त कामनाओं रूपी सुंदर लहरों में ही तो निहीत है ॥ परंतु कामना और प्रेम तो दो विपरीत तत्व कहे जाते न ॥ कामना अर्थात् काम अर्थात् अंधकार और प्रेम निर्मल उज्जवल प्रकाश ॥ तो फिर इन दोनों विपरीत तत्वों की संयुक्त स्थिति की बात कैसै ॥ वास्तव में इन दोनों के स्वरूप में ही इसका कारण छिपा है ॥ कामना अर्थात् काम तब तक काम है जब तक वह स्व सुख के लिये है । जैसै ही उसका विषय स्व से हटकर प्रेमास्पद श्री भगवान् हो जाते हैं वह प्रेम संज्ञावाचक हो जाता है ॥ अर्थात् जब तक किसी प्रिय से अपने लिये सुख की चाह है वह काम है और प्रेम राज्य में इसे प्रवेश नहीं , परंतु जब प्रिय से प्रेमास्पद की सेवा की उन्हें सुख पहुँचाने की लालसा जगे तो वह प्रेम का पदार्पण है जीवन में ॥ जो कुछ भी हमें प्रिय लगता था अथवा लगता है अब उसी से प्रियतम की सेवा करनी , उन्हें समर्पित करनी वह वस्तु , तो यह प्रेम का ही प्रकाश है ॥ प्रेमी कभी कामना रहित होता ही नहीं , हो ही नहीं सकता ॥ उसके हृदय में तो अपने प्यारे को सुख देने की उनकी सेवा करने की अनन्त कामनाएँ सदा लहराती हैं ॥ तत्सुख स्वरूप है ना प्रेम का तो तत्सुख की व्याकुलता कैसै प्रकट होगी कैसे पूर्ण होगी , कामनाओं के रूप में ही तो ॥ कैसै सुख दें उनको कैसै सेवा करें बस यही इन कामनाओं का स्वरूप होता ॥ हृदय में प्रेम है परंतु प्रियतम सेवा की कामना नहीं तो प्रेम गाढ नहीं हुआ अभी ॥ जब सेवा की अति व्याकुलता होवे तो अर्थ है कि प्रेम उन्नत हो रहा है ॥ प्रेम की उच्च अवस्था पर निष्कामता और प्रेम का कोई संबंध ही नहीं है ॥ परंतु हां यह निष्कामता प्रेम की नींव अवश्य है क्योंकि जब तक संसारिक सकामता से मोक्ष सकामता से मुक्त नहीं होंगे तब तक ये कामनाएँ प्रकट हो ही नहीं सकतीं ॥ तो इस परम दिव्य कामनारूपी प्रेम के पदार्पण के लिये पहले सकामता से मुक्त हो निष्कामकता तक पहुँचना अवश्यंभावी है ॥ प्रेम का प्रारंभ भले ही निष्कामता से हो परंतु पूर्णता परम कामनाओं से ही होती है ॥ ये अनन्त रसमयी लालसायें कामनाएँ ही तो हैं युगल की परस्पर के सुख के लिये जो निकुंज लीलाओं के रूप में प्रेम के परम उज्जवलतम स्वरूप को प्रकाशित कर रहीं हैं ॥ समस्त मंजरियाँ सहचरियाँ सखियाँ श्री युगल की परस्पर सेवा भावनाओं की साकार मूर्तियाँ ही तो हैं ॥ उनके प्रेम स्वरूप चित्त की अनन्त प्रेममयी सेवामयी रसमयी वृत्तियाँ ही तो सेवा में लीन हैं इन निकुंज परिकरों के रूप में ॥ तो जब प्रेम के मूल उद्गम सिंधुओं की चित्त वृत्तियाँ सुखदान की , सेवा की कामनाओं का साकार स्वरूप हैं तो भला प्रेम निष्काम किस प्रकार होगा ॥ बस कामनाओं का स्वरूप भिन्न है ॥ स्व के लिये नहीं वरन् प्यारे के लिये प्यारी के लिये युगल के लिये ॥

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