नेक सी थिरकन दृगन की आह ! और ......रस .....रस......रस...... कौन हूँ मैं । बह चली हूँ पिघलकर अनन्त की ओर । मात्र एक बूंद मोहन सुख की .....रस की बाढ है जो सर्वस्व विलीन कर लेती स्वयं में । आलि री ! सब गावें हैं न जाने क्या क्या मोहे रसरूपा रसधामा रसधारा रसदा ..........पर जाने है तू मों में रस आया कहाँ से सखि । ना हूँ री मैं रस .....रस तो वे हैं केवल वे । उनके प्रेम भरे नयनों की पुतरिन की नेक सी चंचल थिरकन ही तो रस बूंदे हो अनवरत झरन लागें हैं या तन सों । आह ! .........सखि देख न वा छन की स्मृति ही मोरी सुधि बुधि लिये जा रह्यो है । मेरे मुखमंडल पर उनके दृगन की कोमल सी छुअन ........यही तो रसप्रवाह बन मुखरित हो उठे है निकुंज के कण कण में । सब कहवें हैं री या रस मो से भरा इन सबन में ....ना री ना .....कैसे कहूँ कहाँ ते बह रह्यो ये रस सलिल जो रससिक्त कर रह्यो मेरे ही इन अनन्त प्राणन को । मंद मधुर मुस्कान उन तिरछे अधरन की .......याहि तो सकल मधुरिमा मोरी । मुदित होकर खिलते ये मम् प्राणपल्लव पियअधर ही तो सरस कर रहे मेरे रोम रोम को .......आलि ! जा मधुता को पीवन हित ललचाते उनके अधर, वो तो उन्हीं की निज मधुता है री फिर भी नित मोपे ही रीझे रहते मेरे प्राणकुसुम । सखि जैसे ही प्रफुल्ल होते ये लाल कुवंर ...... ना जाने कहाँ से शहद भरि जावे है मोरे या अधरन में । उनके हिय को सुख ही नित नवीन गाढ़ मधुता हो माधुरी करा मोहे । सखी ! ........ना जाने क्या क्या कहा जावे मोहे पर कोऊ न जाने री इस दासी के जिन गुणन पे मेरे लालकुवंर रीझे रहवें वे सब तो उन्हीं की एक मुस्कान ने ही मों में उडेलो है । उनके प्रेम ने ही मोहे रस सुगंध रूप लावण्य कला ............ से श्रृंगारित कियो है । वा को मोद ही नित स्निग्ध करे है मोहे । आली ! मैं और कछु नाहीं उनके ही हृदय की कृतिमात्र हूँ री । तुम सब मोहे न जाने कहा कहा मानो जानो पर सांचि बात तो ये है कि उनके ही हिय को रूप सौंदर्य रस गुन कला ही प्रतिमा सी थिरक रही उन्हीं के सुख को, रस को ......मैं ना हूँ री .....केवल वही हैं । तुम मोहे ना देखो हो री ,उन्हीं को मात्र निरखतीं तुम सब । मेरो सकल अस्तित्व वा ही तो हैं जिसका प्रेमगान तुम सब गातीं झूम रहीं नित । बह रहा..... खिल रहा...खिला रहा .... महक रहा......महका रहा ......थिरक रहा ......विचर रहा ......गा रहा ........डूब रहा........डुबा रहा .......उन्हीं का तो प्रेम .....केवल उन्हीं परमसनेही का परम प्रेम उनकी प्रिया बनकर ........राधा होकर ............
निभृत निकुंज , निकुंज कोई रतिकेलि के निमित्त एकांतिक परम एकांतिक गुप्त स्थान भर ही नहीं , वरन श्रीयुगल की प्रेममयी अभिन्न स्थितियों के दिव्य भाव नाम हैं । प्रियतम श्यामसु...
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