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अलिमन भरणी प्यारी सुखसाधा

अलिमन भरणी प्यारी सुखसाधा

श्री सखियों , सहचरियों , मंजरियों के श्री प्रिया जू लाल जू के प्रति अथाह प्रेम भाव सेवा भाव ... जो उन भावों से एक हो गया वह जिस भाव सुरस जीवन के आनन्द में... अहा । पर अभी हम किशोरी के निज सखियों , सहचरियों के प्रति अद्वितीय प्रेम के निमित्त झाँकी का मन सँजोये है । किशोरी हिय प्रेम आह ...अनिवर्चनीय ...पूर्णभाविनि ...निःशब्द दर्शन... ! कैसा अदभुत स्वभाव है लाडली का... गाढ़ रसभुत घन रूप हृदय ...फुलन को हृदय... सजल-प्रेम झरते नयन । रोम रोम में पुलकन प्रियतम सुख को खिलती यह रूप सुधा... और... पुलक-स्पंदन-कम्पन- और स्फुरण...और  ॥ अति गाढ़ दिव्य भाव निज सर्व सखियों के प्रति... श्री प्रिया का वश चले तो उन सबन सखिन को अपनी स्वामिनी बना स्वयं को उनकी चरण किंकरी कर लेंवें... नित सेवित यह सेवातुर भाविनी... श्रीप्रियाजु के लिये उनकी एक- एक सखि ,मंजरी कितनी प्राणों से प्यारी है यह केवल श्री प्रिया-हृदय ही अनुभूत करें... हिय ही जाने है॥ सखियों की जीवन निधि लाडली और लाडली जु के कोटि-कोटि प्राण-प्रिय  सखियाँ ॥ लाडिली की सहचरी(सखी) प्रीत अनुभव का जीव तो पात्र ही नहीं अतिगहन घनभूत यह प्रीतसुधा... हमें लगता प्रेम तो केवल प्रियालाल का परस्पर के प्रति है और सखियों का प्रियालाल के प्रति... परंतु वास्तव में ये तीनों  ही आपस में ऐसे गुंथे हुये हैं कि किसी का... कहीं पृथक अस्तित्व ही नही...  जिस प्रकार त्रिभुज का हर कोना ही त्रिभुज को बनाता है और त्रिभुज को चाहें जिधर से घुमा लो वह समान ही रहता वैसै ही निंकुज लीला , रस रूपी त्रिभुज के तीन कोण श्रीलाडली- श्रीलालजू और ये समस्त सखिगण हैं... किसी का... किसी के लिये भी प्रेम भाव तनिक भी न्यून नहीं वरन उत्तरोत्तर वर्धमान ही है सदा ! किशोरी की प्राण सखियाँ... सखियों की प्राण किशोरी जु... मेरी महारानी श्रीराधारानी... ॥ सखियाँ नित किशोरी-सेवा हेत प्राणपण  से आकुल और किशोरी उनके सुखार्थ स्वयं को उनका सेव्य बनाये हुये... जितनी पीड़ा  किसी सखी या सहचरी को श्री प्रिया का तनिक सा वियोग होने पर... उससे अनन्त गुना अधिक पीड़ा श्री लाडली को ! और यहाँ प्रेम का स्वरूप परस्पर सुखार्थ ही है निज सुख कदापि भी नहीं ! सखियों का परम-सुख युगल का नित्य-मिलन और युगल भी इनके सुखार्थ सब लीला खेलते हुये... ॥ जैसे ये सखियाँ नचातीं इन युगल रत्न को वैसै ही नृत्य करती दोनो निधि-प्राण मणियाँ... और सखियाँ क्या निज-सुख हेतु नचावें इन्हें... कदापि नहीं वरन इन्हीं के सुखार्थ संचालित करती दोनो के मनों को... वरन जोई जोई प्यारो करें ...सोई मौहे भावे... हाव-भाव-मन-प्राण ही नहीं मुद्रा भी एकहूँ होई रह्वे... तब खेल हेतु दोनों को खिलावे... ...
...युगल का हिय सखियों के पास आ गया है और सखियों का हिय युगल के पास पहुँच गया है... अब परस्पर हित वितरण यह खेल... युगल का जो मन सखियों के पास गया उसमें निज सुख नहीं... यहीं सखी को करनी सेवा...युगल सुख का खेल...!  सखियाँ सदा युगल के सुख की करना चाहतीं हैं और युगल सदा सखियों के मन की... युगल के पास युगल सुख नहीं... परस्पर सुख को युगल सुख सखी कर रही...यह परस्पर सुख और युगल सुख की बात बहुत गहन , अनुभव से प्रकट हो...राधादास्य मिले तब... परस्पर मन अर्थात सुख का परिवर्तन हो गया है... कौन किसके मन की कर रहा कोई बाहर का जान ही नहीं सकता और इसी कारण चकित होते ये लीलायें देख-देख... यहाँ इन्हें भी आंतरिक सुख ही मिल रहा जैसे निज उर का खेल... पर यह खेल तीनों के एक हृदय का...  एक ही प्रेम-तत्व तीन आश्रयों में विलस रहा । तीनों ही आश्रय... तीनों ही अवलंबन भी हैं... तीनों ही तीनो के सुखार्थ । यही स्वरूप तो निकुंज लीला का ! प्रेम की बात और भी जगह हुई पर वहाँ प्रीति-प्रियतम दो ही तत्व... पथिक या तो श्रीप्रभु की प्रिया वहाँ... या प्रभु पथिक की प्रिया... जैसे सूफी । पर वहाँ यह तीसरी स्थिति नहीं... प्रीति-प्रियतम... और सेवा । ...नायक-नायिका अनुभूति में युगलमूर्ति की सेवा का सुख नहीं । और यह सेवातुर सखी जो श्रीनिकुँज की इसमें युगलमूर्ति का हृदय अनुभव भी है और उस अनुभव का भोग नहीं... सेवा है... आप को सुख अगर... आज जाने की जिद्द न करो... यूँ ही पहलूँ में बैठे रहो... तब वहां हृदय या तो नायक है... या नायिका ...और नित्य विहारातुर के हृदय में यहीं भाव युगल सेवा है... युगल सुख की भूमि है यह विहार-अनुभूुती।
पृथक निज सुख को प्रवेश कहाँ वहाँ ॥ जीवन प्राण-श्वास  सब परस्पर सुख-हित... सखी में यहीं युगलसुख प्रकट... अहा ! प्रिया लाल साखियों के मन की कठपुतली बने हुये और सखियाँ युगल के मिलित हुये एक ही मन की सजीव मूर्तियाँ ॥ भगवत रसिक जु कहे हमारे तो चेला-गुरु यहीं... हम भी इन्हीं के चेला- इन्हीं के गुरु । युगल सुख का मूल होने से यह गुरु तत्व अतः श्रीवृन्दावन में प्रथम वन्दित ...प्रिया हृदय में प्रियासुख नहीं न... मनहर के हृदय में मनहर-सुख नहीं । परन्तु सखी हृदय में युगल-सुख । यहीं युगल सुख खेल... तृषित खेल... क्रमशः... जयजयश्रीश्यामाश्याम जी ।

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