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अधिकारी-अनाधिकारी

*अधिकार और अनाधिकार*

कौन है अधिकारी भाव रस के जिनका हृदय विरक्त ... अन्य अभिलाषाओं से । जिनका हृदय पुष्ट हो रहा श्रीप्रियाप्रियतम के सुख के संधान में ...
बाहर जगत में चिंतन करें तो कोई अधिकारी नहीं ...बात अधिकार की है ही कहाँ ...बिन्दु कैसे आलिंगन करें सिन्धु का । ...अभाव का चिंतन हो , अभाव का चिंतन भाव की ओर लेकर भागेगा मन को ...मन जब पिघल कर बह जाता वहीँ द्रवीभूत चित्त भाव है ... तो हम बात कर रहें है कि हमारे भीतर एक दीवार खड़ी अनाधिकारी हम । ...हां है हम सर्वथा ...सर्वदा ...सर्वरूपेण अनाधिकारी । परन्तु श्रीप्रभु का रस , उनकी पुकार आ रहे हो और हम कान फोड़ लें कहे अनाधिकारी हम ...  ... ... अंधकार की पीड़ा को सूर्य अपने प्रकाश से हर लेता है परंतु अंधकार से नहीं हमें तो सूर्य के प्रकाश से ही पीड़ा रहती ।
...कहीं पढ  कर भर लिया भीतर इतना कि हम अनाधिकारी ... भूल उनका सुख चिंतन केवल अपने को मापने में ही लग गये... माँ होने पर किसी ने क्यों नहीं कहा कोमलत्व के स्पर्श की योग्यता नहीं मुझमें... बात अधिकार की नहीं जी प्रेम की है , और जीव के भीतर के प्रेम की नहीं श्रीप्यारे के भीतर के प्रेम की । आप अनाधिकारी हो यह बात उन्हें कैसे कोई समझावें...  उनके सुख को जीना तो कभी सीखा ही नहीं था हमनें ! चलिये बने रहिये अनाधिकारी लीजिये अनन्त फेरे अनन्त योनियों के पर अनाधिकारी हो तब भी क्यों श्रीप्रभु धूमिल ...धुसित ...कलुषित बिन्दु के पीछे पागल हो रहे । मिला कभी आपको किसी जीवन मे कोई एक क्षण जब उन्होंने त्याग दिया हो , वें सँग ना हो । ...कभी उनकी दृष्टि से स्वयं को देखा ही नहीं ...उनकी पीड़ा (अनन्त गुणित वात्सल्यसिन्धु मयी पीड़ा एक एक बिन्दु से सिन्धु का अनन्त गुणित मातृभावित प्रेम) ...उनकी तृषा (...अनन्त बिंदुओं के अनन्त सुख का अनन्त हो संधान करते रहना) उनका सुख (प्रति बिन्दु निज प्रतिबिम्ब दर्शन ...जी बिन्दु में यह पूर्ण सिन्धु अपनी छब दर्शन का पिपासु...) उनकी इच्छा (प्रति बिन्दु को परिपूर्ण मधुर नित्य जीवन) कहाँ है ये हमारे चिंतन में ... यह प्रेम जगत माँ में वैध कहता तो परिपूर्ण वात्सल्यनिधि वह कहाँ पूर्ण करें ... हर माँ अपनी अपूर्णता शिशु से दूर रखती ना... उसके जीवन के हर्ष को अपना ही कहती ना... पर हम जगत के लम्पट जीव ...हमारा पूरा मन तो केवल अात्मगुणदोष विचारों से ही भरा न... (अपने गुण द्वारा दूरी रखते अथवा तनिक स्वयं को निहारते तो अपने दोष द्वारा)... प्रेम को रिक्त स्थिति चाहिए ...वह दोष क्या ? ...गुण दर्शन भी नहीँ करता... क्या गुण था किसी प्रथम झाँकी में मन हर लेने वाले शिशु का ...क्या वह सुन्दर रोया इसलिये आप अपना माने ...अपनत्व स्वयं को कहाँ देखता है ...भरे यौवन में एक माँ पागल हो जाती शिशु के सुख संधान में कहाँ गया उसका निज जीवन , खो गया न ... प्रेम हृदय रिक्त कर देता है वो रिक्त स्थली भरती है प्यारे के सुख संधान से...यह सब हमें समझ नही आता क्योंकि हमे अपनी चिंता । ...वे निहारते सदा हमारा पथ तृषित से कि आवें कभी उन तक उनके होकर पर हमें तो सदैव आत्मविश्लेषण की प्यास ...चिंतन कीजिये कभी आपने किसी की प्रतिक्षा की हो तो प्रेम झुलस जाता हमारा उस क्षण... पर यहाँ सम्पूर्ण श्रीप्यारेजु प्रतिक्षा में बहुत गहरी ...प्रतिक्षा में ...पर उस प्रतिक्षा में उनका प्रेम झुलसा नहीं ...हम लौटना नहीं चाह रहे ...वे प्रतिक्षा में पर अनवरत उनके दृग से प्रेम झर रहा... कभी की है आपने ऐसी प्रतिक्षा जिसमें जिसकी प्रतिक्षा हो रही उसके ना लौटने पर प्रेम ही खिल रहा हो... (झुलसता जीव है उनकी पुकार की अवहेलना कर वह ब्रह्मा ही हो जावें तब भी अतृप्त , क्योंकि श्रीप्रभु के नित्य प्रेम की अवहेलना अतः इस प्रतिक्षा में उनका आनन्द और जीव अतृप्त होना फलित होता) यह अतृप्ति है ...सम्पूर्णता में डूब जाने की  पर वहां नयन बन्द कर हम भोग रहे यह दुःखालय जगत । हमने तो आध्यात्म का पथ ही आत्मविश्लेषण का पथ मान लिया... सदा से सुन रहे कि हम अनाधिकारी हम अपात्र... हम अयोग्य कोई मिला ही नहीं कहने वाला कि सब पात्र... सब अधिकारी... पूछते ही क्यों हो आप किन्हीं से पात्रता हेतु ? ...क्या जगत के भोग के समय यह चितन आया हमे... अपात्रता तो तब मानियेगा जब वे स्वयं प्रकट होकर कह दे ... अन्यथा आप उस सम्पूर्ण के सम्पूर्ण रस के उतने ही पात्र जितना माँ यशोदा । ...दास  ...माँ ...सखा ...प्रिया यहीं उन्हें दिख रहें ...वें किसे तिरस्कारें उनका स्पर्श तो कलुषता को भी अमरत्व देता है क्या रावण की गति नहीं हुई ...दशरथ जी और रावण को एक लोक में वह स्थान दिए है और यह बात जटायु जी से कहें है कि आप न कहना कुछ सारी कथा पिताश्री को स्वयं रावण वहाँ जाकर सुनावेंगे... । पिता - वेरी सब बाहर उनके ...भीतर तो करुणा झरती केवल । और हम उन्हें शुद्ध प्रेम कर भी यूं लगता कि कोई अपराध कर रहें हों हम ... प्रियतम का बहुत से चातक प्रेमी इसलिये नाम नही कहते कि प्रेम का पोषण रुकेगा अपितु भय होता कि जगत हँसेगा ...जाना तो कि हमारी तो इनसे लग गई लौ...! अब मौहे श्रीकृष्णकर्णामृत कथा कहनी पर आप सदा कि तरह सुनोगें नहीं क्योंकि प्रेम-रस और भाव का सुख हम क्या जानें ...हमें तो अपराध लगता यह रस पर जगत के भोग कभी अपराध न लगें ...कोई मनवा के बता दे हमसे कि हम उनके हैं हम तो कट्टर नीरसता में सदा सड़ने को राजी है जी... जी , भगवत सुख क्या... वास्तविक स्वार्थ भी नहीं जानते हम एक-एक प्रेमाणु उनके द्वारा प्रयास है ...आप को आसान लगता देखिये एक पाखण्ड जिससे कभी ईश्वरोन्मुखी जीव हो नहीं सकता क्योंकि बाहर भक्ति है वहाँ भीतर नहीं और एक है सच्चा निमन्त्रण ...निर्मल कल्याण के पथ का प्रचार । जानते है कैसे होता यह भावोन्माद में डुबी स्थिति के भीतर स्वयं प्रभु सविनय निवेदन करते है इस स्थिति की सत्यता को जगत से कहने की ...मौन बुद्ध या आह्लादित महाप्रभु क्या सहज स्थिति रखते जगत के समक्ष अपने भावोन्माद को समेटने की । आखिर कैसे अनाधिकारी हम ...क्या उन्होंने कहा हमसे कि तू कंटक है मेरे लिये ...पर हमारामन तो मान लिया कि कंटक मैं क्या यह मान्यता सत्य है ...सत्य होती तो अनन्त पापात्माओं का उद्धार वह कैसे कर रहें। क्या हमारे पापों का अंधकार उनके करूण प्रेममय प्रकाश से अधिक अटल है ...उनकी कृपा गंगा-कालिन्दी सच्ची या जीव के अधम । अजीब शिशु है यह जीव दूरी रखने को रोता है अपनी जनक भावधारा श्रीराधा के प्रेमराज्य से अपात्र कह त्याग कर क्या कोई त्याग सकता उन्हें , यह ही अविद्या है जी उनके प्रेम को भी नकार देती एक पल में हम कह देते रसवर्षा से कि ना बरसों अब सदा मरुस्थल यह चित्त... मनोकल्पित सीमाएं बना ली हमने अब उनकी पुकार ...उनका प्रेमसन्देश ...उनकी मधुरता ...उनकी मोहकता ...उनके नित तृषित नयन  ....उनके प्रफुल्ल अधर  ...उनके कुमुदिनियों के संस्पर्श से कुम्हल जावे ऐसे रस-चरण कुछ नहीं दिखता हमें ... बस एक काल्पनिक अहंकार दिखता... मैं तो अनाधिकारी हूँ ॥ दर्शन से नेत्र प्रफुल्लित होते उनके पर हम उन प्रफुल्लित नयनों को नकार ही सुखी होते न ... वे कहते क्यों ...तो कहा गया हम अधिकारी नहीं  न... तो वे यदि पूछ बैठे कि दिन रैन इंद्रियों से जो भीतर ले जा रहे हो उसके अधिकारी हो तुम क्या? भोगों में जो लिप्त हो रहे उसके अधिकारी हो क्या ॥ लेकिन मेरे होकर भी मुझे जीने में तुम्हें अधिकारत्व की चिंता ॥ मुझसे दूर होने का क्या अधिकार है तुम्हें ? अगले निवाले और श्वांस के समय क्या यह अनाधिकारी भाव आता आपके जहन में *...जीवन मे आया भगवत रस उनका अनन्त प्रयास है ...कृपा है उनकी ...हमारे द्वारा उस अमृत का पान न होना श्रीप्रभु के प्रेम का अंजाने में बहिष्कार है  ...*तृषित । जयजय श्री श्यामाश्याम जी ।

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