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रस लम्पट लीला , मृदुला

तनिक रस पवाय दे न री ............तनक तोरे अंगन को छुयी लूं कहा !! हाय मोरे नैनन हटें ही नाय री तोरे रसीलो मुख ते .......कैसों रसभरी अंखियाँ हिय मेरो डूबो जा रयो री .......नेकहूं सौं रस ...........कैसों मनुहार ...कैसों लाड ....और कौन !अरे वही रसलम्पट अपनो  ।नित नवल चपलता ...नित नवल चातुरी ......प्यारी को रस पीवन हित .....नित नव माधुरी केलि .........कहा करि रहे हो ! प्यारो कूं निज कुचमंडल के निकट करन बढाते देख तनिक रोष भरि पूछत प्यारी जू । अरे नाय नाय प्यारी जु ! हौं तो या मधुकर को उडा रयो हूँ करन ते जो तोरे अति मधुमय कलसन की भीनी भीनी सुंगध ते या को कमल समझ रसपान को ललचाता आ गयो है ..............संपूर्ण निकुंज सखियों की खिलखिलाहटों ते गुंजायमान होई गयो ............वारी जावें तोरी चातुरी पे लम्पट !...........हमें तो इहाँ कोऊँ भ्रमर नाय दीख रयो .......या कह भौंहन चढाई लीनी  एक सखि ने ........अरी तोहे नाय दीख रयो होगो , पर मोहे तो साफ साफ एक बडो सो कारो सो रसलोभी रसलंपट भ्रमर सामने ही दीख रयो जो मोरी भोरी लाडली के अगंन कूं ही कमल समझ मंडरा रयो है ताई पर ........या सुनि सबरी सखियाँ हंसन लाग रहीं ......पर जे रसचोर चुपके चुपके नैनन ते ही रस पी रयो निज रसकुंड को ...........

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कहाँ कहाँ ..........कौन कौन से अन्तस हिय भाव निकुंजों उतरोगे सर्वस्व मेरे .......मैं स्वयं ही कहाँ जानूँ हूँ मधुरिपु , कि किन किन अनन्त स्वप्न यात्राओं में तुम छिटके हुये हो मो से .........हिय ते लिपट भी नित प्यासे ये प्राण ........वही प्यास बह चली इन नैनन ते  , प्राण ! कैसे समेटोगे ये नयनझर हिय मांहि प्रियतम ! तुम्हारें हिय में समाने पर तो अनन्त गुणित हो उठेंगी दृग बिंदुओं में ढली मेरी चिर प्यास .........भृम रोग आह !...........हां प्यारे यह भृम ही लिये जा रहा मोहे निभृत स्थितियों से बाहर उन निकुंजन में , जहाँ पथ पर दृग पथरेणु होकर बिछे हैं मेरे .........तुम्हारी नित्य प्रतीक्षा में .............आओ न प्यारे उन्हीं निकुंज विथिकाओं पर निज कोमल चरन धरते हुये ..........नयनों से मुस्काते हुये .......इन विरहित प्राणों में रस घोलते हुये ..........चले आओ ...........

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