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निरखन

*निरखन*

सखियाँ चहल रही ...पंछियों सी । किशोरी सुन रही , पर क्या सुन रही यह न पतो री ।
...कितने सुन्दर लाग रहे वे आज , आह लाल और केसरी पाग पे मयूरपँखनि ।
...अरी , अजहुं तो वे केसर की कुँज ही लागे री ।
...केवल केसर की काहे री जे प्यारी हिय की कस्तूरी न सुरभित हुई तोहे वांके नयन ज्यों कस्तूरी के कुंड ते ही डूबे उमड़े होय ।
...अरी मौहे तो वांकी रज ते चन्दन हूँ कि भीनी-भीनी सुगन्ध आवे री । एसो लागे मलयाचल ही वांके पाछै फिरै है ।
...नीलकमल !
...ना री आज वे श्यामल अरविन्द हूँ से लागे ।
अरविंद , अरी मौहे तो आवे तब कारे घन सुं ...जावें तो नीलगगन सुं उज्ज्वल बदरिया सँग लागें ।
...तुम सभी छोड़ो री । मैं निरखीं ...प्यारी सन्मुख वे ललित लाल हूँ होई जावें । अहा जैसे शरतचन्द्र को पूर्ण विश्राम सुख ...

          सखी ...काहे उलझो री । प्यारी से पूछो री ...वहीँ तो निरखै साँची । हमहुँ तो निमेष भी न निरखै दुलहुं जु को । लाडली जाने लाल हूँ को रूप ।
      ...ओ री स्यामे ...अजहूँ तोहे कैसे लागे री ।
     सुन री ...
     अरी ओ प्यारे हूँ कि प्यारी तोहे कहुँ ...
...ह्म्म्म । कह री ...का कह्वे ।
      अजहुँ कैसे लागें री । ...??
कौन ...अलि (तनिक मुस्कराय)
      ओह...अरी... तोरे प्राणवल्लभ री ...अबहुँ गए न वें ...अजहुँ । कितने नव दुल्हु हुए आये न ... ...कहाँ भेजी है री प्यारे जु को ...
...वें, आएं का री ...मौहे मिलेई बिन गए का ।
       अरी...  तोरे सन्मुख ही बिराजै । कितनी घड़ी ते... परस्पर दृग उलाझाये कहे... मिली न है...
साँची ...मैं ना देखि री । साँची... जो निरखति तोऊँ...
हे सखी । जे डूबी रह्वे... नेन् ते नेन् जमाए और कह्वे न निरखी... ...लाडली कबहुँ मिथ्या भी न भाषे है जे कौन प्रीत को ऐसो रोग है री...
(झाँकी विश्राम)

झाँकी यहीं विश्राम कर डूबे तनिक इस निरखन में ...
...गहन निरखन में डूबे दोऊँ रस आकुल...  परस्पर निरखन ! ...ना , परस्पर निरखन तो संसार का स्वत्व है री ...यह तो सर्वातीत प्रेम राज्य है उन महाभावोद्गमा का ! ...तू मोहे निरख , मैं तोहे निरखुँ ...तो स्वसुख लोभ यहाँ । तो प्यारे... ...तू मोहे निरख .....मैं जे सुख को जो तोहे निरखन से मिल रह्यो ।
...डूबे हैं लाल जू के नयनमधुकर अपनी कुमुदिनी के मुख पराग आस्वादन में... उतर रह्यो है उस रूपराशि का बिंदु-बिंदु , उन  रूपरस पिपासु दृगन में
       ...प्रति अणु इस रूपसुधा का आत्मसात् करता जाई रह्यो ।  समस्त अस्तित्व रसिकशेखर को                 ...क्या उतर रहा प्यारी के नयनन माहीं    ...ना री   ...समा रह्य  प्यारे को सुख ...जो इस रसनिमज्जन में सुखधाम किये जा रहा उन्हें ...निमज्जन हो रहा प्यारे हूँ का रोम-रोम सुधाराशि में ...और यही पिय सुख रस बन बह रहा प्यारी जू के रोम-रोम हूँ से री...                           
...इतना ...इतना ...इतना कि समस्त निकुंज डूबने लगा इस रस में ।। ...प्यारे के रूप को पीने के लिये स्व नामक पात्र भी तो चाहिये न । ...श्रीप्यारी में स्व नामक जो भी तत्व है अनुभूति है वह केवल लाल जू ही हैं ! ...पृथकता हो तो परस्पर का रसपान हो । यहाँ तो है ही केवल एक , जो प्यासे का रसपान वही पात्र का रसपान।    ...समझने में नेक सो दुरुह होइ सके , क्योंकि अभेदता को ठीक समझते नहीं न अभी । परस्पर से सुख पाना तो माया का गुण है दिव्य प्रेम-रस सर्वथा भिन्न इससे । नायक नायिका परस्पर के रूप दर्शन से सुख भोग ना है निकुंजन में । प्यारी के दर्शन से पिय को सुख और पिय के सुख से प्यारी को सुख ... ...पियसुख-सुधानिधि की सार-भाविनी श्रीप्यारी...
तृषित । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी ।         Do Not Share

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