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गहन-गहन और अति गहन

गहन ... गहन ... अति गहन

अति ही गहन...अति ही गाढ , यें प्रेम रस... । गाढ जैसे मधु... गाढ़ता मधुरता की हमने मधु ही देखी... युगल रस की गाढ़ता मधु की अनन्त मधुतम गाढ़ता ।  दोऊँन युगल किशोर रस के ऐसे सिंधु में निमग्न हैं कि वाणी स्निग्ध हो भीगी रही मधुवत हो जाती और...  कहते नहीं बनता कि मधुता अधिक है या गाढता... ... उदहारण के लिये मान लीजिए कि किसी को गाढ मधु के सागर में डुबोया जावे तो उसकी समस्त इंद्रियाँ शिथिल हो जावेंगीं और देह अवश । ...यह गाढ़ता और मधुरता दोनों ही मधु सिन्धु भीतर बाहर भर जावें ...ऐसे ही उज्जवल रस के अतिगहन गाढ मधु-सिंधु (मधुता कैसी अनन्त गुणित मथित मधुता) में ये दोऊँ अति सुकुमार रसीले फूलों से कोमल किशोर शिशुवत निमग्न हैं... ... मधुता से लबे हुये ...मधुता से भरे हुए ...दोऊँ नन्हें अति कोमल फूलन के फूल ...जो इस रसमधु सिन्धु की गाढता से पूर्ण अवश हुये रहते हैं । यह मधु कितना गाढ है बखाना ही नहीं जा सकता... यह गाढ़ता अप्राकृत गाढ़ता है अतः प्राकृत चिंतन तो सम्भव ही नहीं । इस मधुता का अनुभव तनिक मधु सिंधु में गिरे दोऊँ फुलन के खेल की झाँकी को अनन्त गुणित कोमल-गाढ़-मधुर कर किंचित वह फूल अनुभव कर सकते । डूबे बिन कैसे अनुभव भी होवे ...इसी की गाढ़ता को स्थिर स्थिति कहते भावुक पथिक  । जो इस गाढ़ता का चिंतन भी धारण करें है वो सभी गहन भाव समाधि में डूबे है । ...इसी मधुता से यह दोऊँ नित रसजडता को प्राप्त हो रहे हैं .....गहन गाढ रससिंधु से ये नवल किशोर... ... निज स्वरूप ही मधुसिंधु में नित निमग्न , कभी बाहर निकलें ही नहीं यह दोऊँ फूल रसमधु सिन्धु से... ... और इन्हीं रसमधुसिंधु की अनन्त लहरें ,  श्रीसखिगण , जो मधुता की गाढता से स्थिर होते ,  इस सिंधु को तरंगायित करतीं रहतीं हैं (लहर कहते ही लौकिक सागर की लहर आई आपके हृदय पटल पर , नहीं जी रसमधु सिन्धु सार सुधा की बात हो रही जी... गाढ़... मधुता की घनीभूत गाढ़ भाव लहर ) ...ये तरंगे ही इसकी मधुसिंधु की गाढता को किञ्चित तरल कर... लीला की... रसकेलियों की नव नव चंचल लहरें उद्दीप्त कर इसके सौंदर्य माधुर्य को इन्हीं के सुखार्थ रसार्थ अनन्त गुणित कर रही... ... ऊपर से परम चंचल चपल तरंगायित यह रससिंधु भीतर नित्य एकत्व का आस्वादन करता हुआ , गहन गाढ पूर्ण समरस है... ... इस रसमधुसिंधु की मधुता इतनी गाढ है कि  पलक उठा निरखन में ही न जाने कितना... ...कितना काल -कल्प व्यतीत हो जाता है... संपूर्ण केलि में तो अनन्त सृष्टियां ही परिवर्तित हो जाती हैं ! अतः ब्रह्म स्थितियाँ भी सृष्टि क्रम में संसृत होने से दृश्य नहीं कर पाते इस मधुरससुधासिन्धु की घनीभूत केलि । इनकी ...  ...अधर पुष्पों की तनिक सी स्मित , गति की सीमा का भी अतिक्रमण कर जाती है ...नेत्र पुतलिकाओं की थिरकन ...भ्रू भंगिमाओं का मनोहर चपल नर्तन .......ना जाने कितना गहन गाढ रस भरा इनमें .........एक सीकर भी जो इस मधु का किसी रसातुर भावातुर लोलुप्त अनन्य निष्ठ किन्हीं रसिक हिय पर गिर जावे तो संपूर्ण अस्तित्व ही मधुमय हो उठे ... ... ... तृषित । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी ।

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