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प्रीति सुख

*प्रीति सुख*

प्रीती सुख.........

बडी ही गाढ है ये प्रीति सुख... अति दुर्लभ भी । दुर्लभ क्यों... क्योंकि परमतत्व का सुख चिंतन यह , उनके सुख की चाह यह । ! परम का सुख ! सुनकर लगता उन्हें सुख... वे तो नित्य आत्मसुखी ....सर्वसुखधाम ही वे हैं । हम कैसे उन्हें सुख... ...
जीव सारा विधान चाहता है स्वसुखार्थ ...पूर्णानन्द प्राप्ति यह उक्तियों को सुन-समझ कर ही कई विधाओं से वह आज आध्यत्म को खोज रहा... क्यों खोज रहा । स्व की सम्पूर्णता हेतु । सम्पूर्ण के सुख के हेतु कोई समुद्र में एक बिन्दु गिरती है... वहीं एक बिन्दु जीवंत प्रीति अणु का अनुभव सुख समझी है । शेष बिन्दु स्वयं में सिन्धु भरने को... ... बिन्दु भी स्व अपरिचित क्योंकि आत्मसुख का भी मूल है उनका सुख संधान ...मानिये माधुर्य सम्बन्ध श्रीप्रभु से । वात्सल्य-सख्य-रागानुगा आदि रस यह है क्या ...यह है अपनत्व !
सुख का चिंतन उपजता है अपनत्व की करुणा से । जब तक हम क्षुद्र हैं ,याचक है , ग्राहक हैं , स्वार्थ में रचे बसे है या भोग से छूटे नहीं तभी तक वे परम हैं ...विभु हैं ...दाता हैं ...सर्वसमर्थ हैं ...ग्वाल सखा तो लात भी जमा देता तो भी प्रभु को सुख मिलता न क्योंकि उनका अंतर मानता श्रीप्रभु को सुख है उसके सँग से ...तो होता उन्हें । ...गोपी के यहाँ चुराए माखन पर मिली यातना... कौन दे सकता उन्हें यह सब जो बस अपना माने इतना अपना कि ईश्वर भी ना मानें उन्हें ... अरे ...अरे काहे न माने वांको ईश्वर ...भई ईश्वर ना मानेंगे तो लोभी-जीव के भोग वासना को पूर्ण कौन करेगा परम् मानते क्योंकि पराया मानते ...अतः वह दाता है प्रेमपिपासू नहीं । ...यह सब तब तक जब तक वे पर हैं । चिंतन कीजिये समस्त ज्ञान , वैराग्य , विरक्ति , योग उपरति अभीष्ट ही इसी हेतु कि वे पर से स्व हो जावें । वे नित्य स्व ही हैं , इतने स्व कि हमारी कल्पना में भी ना समा सके कि कितने हमारे हैं वे । भास्कर से छुटि किरण भास्कर के स्व से बंधी होती अतः नित लौट जाती हम विस्मृति में पड़ गए मूल खो कर हम कोई पृथक सुख खोज रहे । ...वे नित्य जागृत ...नित्य सजग हमारे सुख को । हम तो अपने ही आत्म तत्व से  अनभिज्ञ , नितांत अपरिचित । ...आत्म चिंतन भी यथेष्ट हो तो वह दृश्य भर पृथक होगा अनुभव रूप एकाकार होने लगेगा उनसे ।  स्वयं को जानने का प्रयास ही नहीं,  हुआ तो... ...  स्व के सुख चिंतन का प्रयास न करना होगा स्वतः यही मात्र प्राणों का हित (हेतु) होगा क्योंकि है ही यह मात्र हेतु इन प्राणों का । उनका सुख है क्या , यह सुख है प्रीती......
प्रीती ही एकमात्र मूल सुख हमारी आत्मा की , प्रीति ही हमारे प्रियतम का सुख
मूल में एकता ही है ...अनन्य सम्बन्ध हमारा उनसे । नित्य सम्बन्ध । सागर का जैसे भीतर की जलनिधि से सम्बन्ध वैसा सम्बन्ध ...इस सिन्धु के हम बिन्दु । यह सिन्धु परिपूर्ण है हम बिन्दुओं से छूट यह रिक्त नहीं होता प्राकृत सिन्धु की तरह ...अपितु छूट कर बिन्दु-बिन्दु में छिप जाता यह सिन्धु । ...और मूल में तो प्रति बिन्दु में सिन्धु रूप चेतना हो यह अपने विलास को तो अनन्त करता है । इस अनन्त विलास का एक धागा है जैसे मालिका के मोतियों के सम्बन्ध में एक गोपनीय अदृश्य धागा ...प्रीति ।
......इस प्रीती से विमुख न जाने कहाँ-कहाँ निज सुखानुसंधान में भटकते हम । निज शिशु की हित चिंता माँ किसी साधन , उपदेश या प्रयास से नहीं हृदयंगम किया करती... शिशु के रुदन के भेद को भी माँ समझती ना कब क्या उसका मनोरथ , क्या यह सब अध्ययन से आया उसे ...यह हित माँ के हृदय में ही निहित होता है जो निज विषय को सन्मुख पा स्वतः प्रकट हो जाता है । यह हित भावना जो वास्तव में उन्हीं के निमित्त थी अपने मूल विषय के अभाव में भटक जाती है , हित परस्पर प्रकट रस प्रीति ही है अर्थात मैं अपना हित नहीं समझ सकता परन्तु आपको मेरा हित स्पष्ट सदृश्य होगा... यहीं हित दास्य से माधुर्य रति तक वर्द्धित हो रहा , दास बहुत बार स्वामी का हित अनुसंधान , स्वामी से उचित जानते । हनुमान राम हृदय-सुख को राम से अधिक समझते । माँ यशोदा लाल की रूचि-अरूचि लाल से अधिक जानती ऐसे ही श्रीप्रियाजु सम्पूर्ण हित श्रृंगार श्रीप्रियतम का... अर्थात प्रीति सुख ।
परन्तु हम क्यों भटकते क्योंकि हमें भोग रोग भव को भोगने का भोग... जगत भोगना चाहते हम अतः हमारा यह हित या कहिये परम् के भावरससुख का यह चिंतन कभी उद्दीप्त ही नही हुआ क्योंकि उन्हें देखने की दूसरी दृष्टि जो विकसित कर ली हमने ...पर वहीँ उन्हें हमारा हित स्पष्ट गोचर है वह और व्याकुल होते इससे क्योंकि वह हमें हमारे ही हित के विपरीत जाते देख रहे है... यह गूढ़ प्रेम सन्दर्भ है , प्रेमहीन जीव न स्वीकार करेगा यह ।
जगत क्या कहता ...उन्हें क्या दे सकते हम ...बडे से बडे ज्ञानी यही कहेंगे वरन जितना ज्ञान बढेगा उतना ही प्रीति तत्व दूर होता जावेगा । सरल भोले हृदय में प्रीति सहज ही प्रकट हो जाया करती है ...गोप-गोपी अरे नहीं श्रीहनुमान की वह वानर सेना ही देखिये धन्य वह प्रेमप्यागे जिन्हें दिख रहा और मिल रहा उनका सुख अनुसंधान जीवन अर्थात सेवा । यह तो थोथा ज्ञान ही है जो हमें कभी दाता नहीं होने देता... सदा याचक ही बनाये रखता... स्वर्गवासी होना चाहता हमारा यह ज्ञान , बस ...साकेत ...वैकुण्ठ ...गोलोक सब सन्मुख प्रेमी हेतु ।
हम क्यों उनके भीतर के अनन्त प्रेमोत्सव में सर्व की अनन्त सेवामय तृषा में पगी उनके इन नयनों कुछ तृषित सा नहीं पाते । ...हम तृषित नहीं पाते तो प्रीति सुख हृदय से उछले कैसे ...गोपियों के लिये तो छाछ के प्यासे यह , ज्ञानी के लिये नित्य आत्मतृप्त । क्योंकि दृष्टि में अपनत्व हो तब ही तृषा उद्घाटित होती , हम भी तो कहीं नयों में भूखे प्यासे जाते तो भी कहते ना कि जी अभी... अभी खा-पीकर आएं है । अपरिचित को कहते नहीं बनता न कि आग लग रही भीतर ऐसे प्रेम-पिपासा छिपी इनकी ...प्रेमिन के आगे तिलमिला रहीं और बाहरी के लिये तो पूर्णतम सर्वेश्वर कोटिब्रह्मांडनायक श्रीनारायण !! लग रहा कुछ समझ गए आप... पुनः पढिये मनन कीजिये प्रेम में डूबना होगा जो अभी आप है न वह तो खो जावें शीघ्र अति शीघ्र ...इनका सुख क्या यह दर्शन तब ही होगा जब अपने सुख का चिंतन नहीं दिवारात्रि ब्रजबाला या नित्य विहारित परिकरों की सेवा-सुख की चटपटी भीतर बढ़ती जावेगी । अभी तो हम जो करते  ...जगत के लिये करते... वन्दना, स्तुति, सेवा, भाव, भावना, जो करते... सब अभिनय । वहाँ हृदय कुछ देता नहीं हमारा अपितु मूल में लें रहे होते कुछ न कुछ... कीर्ति-प्रसिद्धि ही । अतः युगल सुख कभी हृदयस्थ अनुभव नहीं होता । कभी यथेष्ठ रख करते  ...तो फिर स्वतः हम उनका रस तत्व प्रीती सुधा ले उनकी ओर न दौड पडें तो कहियेगा ..........जितना तृषित मानते , उससे कहीं अधिक तृषित वे हम देख पाते ...इस प्रीति रस के ...उधर उनकी तृषा बढती और इधर हमारे हिय में प्रीती लता... ... ... फूलती-फलती-पुष्पित होती  .... ...और अपनी ही सुगंध से उन्हें और तृषित करती... और सुखी करती...  और... कभी ऐसे नित्य प्रीति-सेवा गहन होती । तृषित । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी ।

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