भोगी जीव को भोग में रस जिस स्थिति को वह भोग न सकें उससे ऊब जाता ...
जानते है आप क्यों यह तृषित अनुनय करता वह रस कर्णपुटों से भीतर हृदय पर झारने को ...
सभी के हृदयकमल पर मेरे प्राण सर्वस्व आसीन ...आपके भी ...बहुत लोग सुनते नहीं क्योंकि वह अपना भोग खोज रहें । भोगते रहिये ...अनन्त जीवन भोग डाले है ...भोगते हुए । अब आप सोचें आवश्यकता क्या मोहे जब आप अनवरत ना सुनते तो यह रस भीतर प्राणों में उतर तो गया छुपके से ...इसकी सुगन्ध भीतर उतरती जब उनके रस भाव मे रसना भीग जाती ...रसना या तो स्तम्भित हो जावें ...या गाती रहे वह स्तुति ...जिससे मेरे प्राण श्रीश्यामाश्याम को परस्पर सुख हो ।
पसन्द - नापसन्द से छूट उनके सुख का चिंतन कीजिये ... जो भी भोगा जा रहा वहाँ एक क्षण रुक कर तनिक ये सोचा जायें कि क्या इसमें सुख है उनका ? जो दृश्य नेत्रों का विषय बन रहे क्या हैं उनके योग्य वे । जो गीत सुन रहे हम जो विष भर रहे कर्ण पुटों में होगा क्या इसमें उनका सुख ॥ जो स्पर्श कर रहे इंद्रीय से उन्हें सुख क्या है इससे । जो रस दे रहे रसना को निज क्या है उनके काबिल वह रस ॥ क्या जी रहे हैं हम क्या कर रहें हैं ॥ ऐसा लगता कि उनके लिये प्रतिकूलताओं का , विषों का भंडार बना लिया हमनें स्वयं को ॥ हर पल हर क्षण उनके विपरीत रहना ही जीवन बन गया हमारा ॥ भोग रहे हैं हम पर यदि प्रेम कर पाते तो उनका सुख जीते ॥छोटे से पुष्प से भी प्रेम नहीं कर पाते उसे भी भोग लेना चाहते । क्या उसका कोमलत्व उसकी सुगंध उसकी स्निग्धता उसका रसमकरंद प्रियतम का नहीं ॥ यदि हम उससे प्रेम नहीं कर पाये तो उसके महान उद्गम से कैसै प्रेम करेंगे । भीतर उतरने वाली हर वस्तु प्रियतम के सुख की कसौटी पर होकर गुजरे तो स्वयं ही सुख प्रकट होने लगेगा उनका ॥ जीयें उन्हें अपने भीतर हम वही होकर तभी जानेंगे प्रेम रस को ॥ स्वयं को मिटा उन्हें भर लें तो सर्व रस रहस्य उदघाटित कर देंगे वे हममें ...यह रस बहुत गहरा सुख ऐसा नित्यानन्द अनुभव की यह रोग स्वयं युगल भी ना उपचार कर सकें है ...उन्हें सुख देने का सुख । ...काश मैं ऐसी धरा पर गिरता जहां सबका एक सुख होता ...तो सम्भवतः मुझे किसी भोगी के भीतर विराजमान अतृप्त मेरे प्राण सर्वेश्वर की अतृप्ति का दर्शन ना होता । ...युगल सुख का जीवन ही जीवन है । पर वह सुख अनुभूत कैसे हो ??? जब उनसे प्रेम हो ...उन्हें तो है अपनी बिन्दु - बिन्दु से नित । हम बिन्दु ही नित अपूर्णता में ही अपूर्ण को ही अपूर्ण सुख देकर अनन्त अपूर्ण जीवनों को अपूर्ण कर पूर्णतम की कृति की अवहेलना करते आ रहे । जिस आनन्द को आप - मैं खोज रहे वह है पूर्ण की पूर्ण होकर सेवा , पूर्ण होने के लिये पूर्ण के रसानन्द का अनुभव ही हृदय का अभीष्ट हो ... तृषित ।
ॐ पूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात् , पूर्ण मुदच्यते,
पूर्णस्य पूर्णमादाय, पूर्ण मेवा वशिष्यते।
मुझे पता है अब भी अहंकार मुस्कुराएगा ...मेरी प्रीति तो पिपासित झरने को ...आपके नयनों से ... कहता ही रहूंगा अगर प्राण है तो ...सुनोगें ना मेरे युगल रस गीत...
निभृत निकुंज , निकुंज कोई रतिकेलि के निमित्त एकांतिक परम एकांतिक गुप्त स्थान भर ही नहीं , वरन श्रीयुगल की प्रेममयी अभिन्न स्थितियों के दिव्य भाव नाम हैं । प्रियतम श्यामसु...
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