मोहन उर भावना
मेरे प्रति रोम रोम में
प्यारी तू मुस्काती है
नैनों से झरती कभी तू
कभी अधरों पर
खिल जाती है
तेरे रस से भरा हुआ है
मेरा पूरा अन्तस्थल
श्वासों में भी महक रही तू
होकर रस निर्मल अविरल
मेरी छुअन भी बनी हुयी तू
तू ही तो मम् सब स्वर गान
तेरा ही रूप सजा है मुझमें
होकर ये सौंदर्य सुजान
है जीवनी मेरे जीवन की
तू ही है मम् उर प्रान
मेरा सब आकर्षण तुझसे
तू ही मेरा तत्व महान
बहती है तू रस होकर
गाती है तू रव होकर
झरती है तू स्वर होकर
रहती मुझमें मैं होकर
मेरे सकल आनन्द की दाता
तू ही मेरी प्राण प्रदाता
मम् प्राण संजीवनी है तू
मम् रस तरिंगिनी है तू
श्यामा तू रस की धारा है
तू ही कृष्ण प्राण अधारा है ॥
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