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झरित रोमावलियाँ

झरित रोमावलियाँ

निभृत रस शैय्या पर आलिंगित युगल रस चातक आहा .......॥झर रहा है रस, रस अणु बन प्रिया के रोम रोम से ॥ प्रति अंग अंग से निर्झरित होते रस बिंदुओं की मनभावनी लडियाँ  ॥ प्रत्येक बिंदु को समेट लेने को रससमउत्सुक प्रियतम ॥ जैसै हर ओर से पी लेना चाहें इन रस झारियों को । प्रिया अंगन पर सुशोभित रसमय आभूषणों की मधुर झंकार ,कंगनो, की किंकणी ,की नूपुरों की रससिक्त लहरियाँ प्रिया की सुगंधित श्वासों से झंकृत संगीत वो प्रेम के सार को संजोति प्रिया की मंद मंद वाणी रस घोल रही प्रियतम कर्ण पुटों में तो क्यों न रोम रोम ही कर्ण पटु हों  प्रियतम के  .....॥। परम सुशीतल परम मधुरतम समस्त सुखन को सार वह महाभावभावित सुदुर्लभ पियूषवत स्पर्श झरता जब प्रियतम हित ही प्रति अंग अंग से तो क्यों न रोम रोम ही तृषा का सिंधु हो प्रियतम का .....॥ अंग अंग से महकती प्राणों को शीतल करती श्वासों में नित नव उल्लास भरती हृदय को रस में चूर करती फिर नव तृषा का उदय करती पुलकाति संवारति फुलवारी सी महकती मदमाति वो महाभावभावित अंग सुंगध जब प्राणों में उतर मचलने को व्याकुल तो क्यों न रोम रोम ही श्वासें होे प्रियतम की .....॥ रूप राशि अपरिमित झर रही प्रति अंग सुअंग से ,वो चितवन वो मुसकन वो थिरकन, नील अलकन बंकिम दृगन रस कपोलन स्मित नयन  वो अपूर्व सौन्दर्य की घनी राशियों से जडी लावण्य की महाभावमूरत तो क्यों न रोम रोम नयन चकोर हो प्रियतम के  .......॥ सकल रस को सार  लालित्य की पूंजी  रस की अनन्त अनन्त महानिधि प्रियतम के सर्वस्व का हरण कर व्याकुलता की चरमसीमा पर ले जाने वाले, प्रेमोदधि में डुबो प्रियतम के रोम रोम से रसधार बहा देने वाले दो रस से पगे परम सुकुमार मधुर मकरंद ये युत दो अधर सरसिज तो क्यों न रस भ्रमर हों प्रियतम के दो .......अधर ॥ जयजयश्रीश्यामश्याम ॥

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