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मदीय-तदीय भाव

मदीय अर्थात मेरे अर्थात् यहाँ श्यामसुन्दर में मेरे का भाव होता । यह मेरे का भाव वैसा नहीं जैसा संसार में मेरे का अर्थ होता । मतलब किसी वस्तु या व्यक्ति पर अधिकारत्व को मेरे से व्यक्त किया जाता । वहाँ मेरे का स्वरूप मुझसे है । मेरे लिये नहीं मैं उसके लिये । नवजात शिशु जो अभी अभी जन्मा है उसके प्रति माता की जो भाव अनुभूति होती है मेरा अर्थात् मुझसे बना कुछ कुछ वैसा । और यही भाव माता को लाख कष्ट सहकर भी नवजात के सुख का साधन करने को प्रेरित करता । यहा भावावास  है परंतु वहाँ विशुद्धतम पूर्णतम स्वरूप मे यही मदीय भाव है । तदीय में तुम्हारा दायित्व हम परंतु मदीय में तुम हमारा दायित्व । यह मदीय भाव श्रीराधा जू का ही स्वत्व है । श्रीलाल जू का संपूर्ण दायित्व उन पर , उनका प्रियतम पर नहीं । यही भेद है गोपियों और प्रियाजू के भाव में ।
तदीय भाव में किसी न किसी मात्रा में लेने का भाव निहीत रहता ही है । परंतु मदीय भाव ही एसा है जो परम विशुद्धतम स्थिती है प्रेम की और जो प्रिया जू की नित्य स्थिती है , विशुद्धतम प्रेम
संसार में वयस्क किसी शिशु को चूमें आलिंगन करे या कुछ भी तो वह सहज ही वात्सल्य समझ लिया जाता परंतु यदि दो  व्यस्क एसा करें तो वह काम क्रीड़ा लगती । वहाँ दो व्यस्क एसा करते परंतु काम की गंध भी नहीं  लेकिन समझना दुरुह इसे । जबकी युगल की पारस्परिक क्रीड़ा इसी भाव की पूर्ण पराकाष्ठा है लेकिन देखने में कामक्रीड़ा ही लगेगी ।
हम वात्सल्य से केवल माता शिशु का संबंध ही जानते समझते । इसके पूर्णतम विकसित स्वरूप से अनभिज्ञ
संसार में माधुर्य तक का भावाभास होने के कारण जीव यहीं तक अनुभव कर सकता और समझ सकता । इसे भी विकृत स्वरूप ही जानते सामान्य जन । परंतु इससे आगे के भाव ही गोपी भाव और श्री राधा भाव है तो समझना .......॥हम केवल संबधजनित प्रेम ही समझते हैं न । जयजय श्री... ... जी

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