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अभिन्नतामय प्रेम


क्या कभी  देखा ऐसा कि जो प्राणों मे समाया हो, रक्त बन धमनियों में प्रवाहित हो रहा हो ,जिसे जी रहें हो ,जो इतना अभिन्न तत्व हो उसी से वियोग भी हो ।संयोग और वियोग एकसाथ अनुभव करें हैं कभी । जिससे पृथक आपका अस्तित्व भी न हो उसी से वियोग भी हो । जो भरा हो भीतर मन में प्राण में वही दूर भी प्रतीत होता हो ॥ये ऐसा ही है जैसै स्वयं का स्वयं के लिये विरह ॥ वाणी में न समावेश जो बुद्धि में न समावे । स्वयं को जीते हुये स्वयं से वियोग । एक में ही दो फिर उन दो का विरह परस्पर  ॥।जिससे प्राण तन्तु बने हों उसी से वियोग॥ कैसै संभव यह । स्वयं के लिये रोये कभी खुद के मिलन को तडपे कभी । जैसै स्वयं की विरहाग्नि में जलना ॥ पर प्रेम संभव करता इसे ॥।यही तो प्रेम का कार्य ॥।दो को एक कर देता पूर्णतया ॥काम दो में संभव पर प्रेम केवल एकत्व में ही विकसित होता ॥ काम में एक होकर (देह से , इंद्रियों से ) भी एक नहीं सर्वथा दो ही रहते परंतु प्रेम में दो होकर भी कोटि कोटि दूर रहकर भी पूर्णतम एक रहते सदा ॥ परंतु एक होकर भी कोटि कोटि गुना दूर अनुभव करते , तडपते जलते विरहाग्नि में ॥ कैसा प्रेम होता यह अनिर्वचनीय विचित्र तत्व !श्री श्यामसुन्दर किशोरी के प्राण तन्तु फिर भी वियोग है नित्य संयोग में ही नित्य वियोग छिपा ॥
रोम रोम में प्रियतम भरें हैं फिर भी रोम रोम प्रियतम विरहानल में जले ॥कितना अदभुत होता न प्रेम !
वास्तव में प्रेम अन्य में नहीं वरन स्वयं से ही होता है । अर्धात् जब तक प्रेमास्पद में अन्य का पर का बोध हो और स्वयं में मैं का तब तक प्रेम की गंध से भी रहित हैं पर जब प्रेमास्पद  में अपना और स्वयं में प्रेमास्पद का अनुभव होने लगे तब ही प्रेम .....॥

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