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श्रीकृष्ण

श्रीकृष्ण ..........

कौन हैं श्रीकृष्ण , श्री प्यारी के प्रियतम जिनका नाम है कृष्ण ......ना । श्रीकृष्ण है श्री प्यारी के हृदय रस ते निर्मित रसवपु को नाम । सीप के हृदय रस ते बने वस्तु को मुक्ता कहवें हैं न वैसे ही श्रीराधिका हृदय रस से प्रकटी निधि को श्रीकृष्ण कहा जावे है । इस हृदय निधि को रोम रोम अंग अंग समस्त भूषन बसन श्रीप्यारी के हृदय रस की ही सुंदरतम् रचनाएँ हैं । या के नयन अधर कपोल मयूर पिच्छ गुंजमाल पीतांबर चरन नूपुर और नूपुरों की मधुरतम् झंकार सब कछु श्रीप्रिया हृदय रस की मधुरतम अभिव्यक्ति है । श्रीप्रिया से परे या पे कछु है ही नाय । प्यारी जू नित नवीन सजावें या हृदय रसविग्रह को अपने , पर कैसे .........बाहर से तो हम समझें जाने माने हैं । पर या को नित्य नवीन श्रृंगार तो प्यारी जू को हिय रस ही है । निज हृदय रस की एक एक बूंद से नित्य नवीन श्रृंगार कर रहीं वे निज हृदय निधि की । उन महाभाव उद्गमासिंधु के अनन्त प्रेम की महाभाव धारायें ही नित्य नवीन रसश्रृंगार है या को । ये रस की मूर्ति श्रीप्रिया हृदय रस है । यह रसमुक्ता कभी श्रीप्रिया हृदय रूपी सीप से बाहर गमन ही नहीं करे । इस रसमुक्ता की उज्जवलता माधुर्यता कोमलता और रसमयता की अनुभूति भी मात्र श्रीप्यारी रूपी सीप के आश्रय में सन्निधि में ही दृष्टिगोचर होवे है । उन्हीं के भावमय प्रेम के प्रकाश में निखरे है ये रसमणि । उन्हीं महाभाविनी के भावक्षेत्र में प्रवेश पाकर उन्हीं के भाव का अंजन नैनों में आंजने से ही वह प्रेमदृष्टि प्राप्त होवे है जो इस रसमणि की नित नवल उज्जवलता को निरख सके है । उन्हीं के हृदय की कोमलता को पाकर हम स्पर्श कर सके या की माधुर्यता का । या की बोलन छुअन नर्तन मुस्कन उन्हीं के हृदय भाव ते एक होई रस को संचार करे है । यहाँ बात किन्हीं भगवान की नहीं हो रही जो त्रिभुवन के स्वामी हैं , यहाँ तो श्रीनिकुंजविलासी अति सुकोमल अति रसीले लाल जू की कही जाय रही जो इन महाभाविनी की प्रेमधरा के सिवा दूजा कछु जाने ही ना हैं ।ईश्वर ब्रह्म भगवान तो कहीं भी मिल जावेगो परंतु निकुंज बिहारीलाल तो मात्र यहीं मिलेगो श्रीप्यारी के हियसीप में मुक्ता सौं दमकतो हुलसतो निखरतो महकतो सरसतो .......जे लाड लडाना चाहो या छबीले लालन को आई जाओ श्रीप्यारी जू की छत्रछाया मांहि .......

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