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काम ......वास्तविक स्वरूप

काम ......वास्तविक स्वरूप 

काम और प्रेम ये दोनों किसी क्रिया विशेष का नाम नहीं वरन प्रकृति हैं । जीव मात्र काम से ग्रस्त अर्थात् कामी है । कामी से तात्पर्य रतिक्रिया से नहीं वरन काम का अर्थ है स्व सुख पृवृत्ती । यह जीव की सहज और नित्य प्रकृति है । जीवन के अस्तित्व में आते ही श्वास लेना भी काम है । माता के गर्भ में शिशु का श्वसन के मूल में काम है । हमने काम का स्वरूप और अर्थ अति सीमित कर लिया है । काम से तात्पर्य केवल देहभोग ही कहा सुना माना जाता है । काम अर्थात् स्व का सुख । यही जीव का मूल स्वरूप है । इसके अभाव में जीव चेतना जीवन धारण ही नहीं कर सकती । स्व के लिये श्वासें बिना इस वृत्ति के संभव नहीं , भोजन , देह रक्षा कुछ भी संभव होगा ही नहीं । स्व का योग क्षेम वहन करना ही काम है । और तो क्या बात कही जावे जीव किसी देह को धारण भी नहीं कर सकता इस वृत्ति के अभाव में । जीवन के अस्तित्व में आने से लेकर देह शांति तक जो कुछ भी ग्रहण किया जा रहा है किसी भी रूप में वह इसी के कारण क्योंकि काम ग्रहण करने की मूल वृत्ति है । इसी हेतु जीव में प्रेम का अभाव माना जाता है । काम जीव का स्व भाव प्रकृति वृत्ति है और प्रेम श्रीभगवान का । श्रीभगवान का स्वरूप प्रेम है वृत्ति प्रेम है प्रकृति प्रेम है । प्रेम अर्थात् देना । ये बात कहनी बहुत सुलभ हो गयी है कि प्रेम का अर्थ है देना परंतु इसका स्वरूप बहुत गहन है । जिस प्रकार काम और लेना अर्थात् ग्रहण करना एक ही तत्व है वैसे ही प्रेम का स्वरूप देना है । यहाँ देने से समझा जाता है कि देने की इच्छा करना या भावना करना । भावना करना नहीं वरन देने की प्रबल सहज वृत्ति देना ही प्रेम है । क्या हम प्रथम श्वास लेने की इच्छा करते हैं या चिंतन करते हैं , तब श्वास लेते हैं । नहीं ये हमारी सहज प्रकृति है जो चाहे अनचाहे सोते जागते मृत्यु पर्यंत अनवरत चलती रहती है । जीव अस्तित्व में आते ही केवल लेता ही लेता प्रकृति रूपी ईश्वर से । इसमें उसकी चाहना अचाहना का कोई अर्थ नहीं है । जिस देह में हम रह रहे वह भी प्रकृति से ही लिया है । उसका पोषण भी वहीं से ले रहे । इसी प्रकार प्रेम की सहज स्वभाविक वृत्ति प्रदान करना ही है । निज विषय को सुख प्रदान करना सहज स्वभाव है प्रेम का । परंतु यह तब तक हृदयंगम नहीं हो सकता जब तक अनुभव न हो । आनन्द भगवान का स्वरूप है और आनन्द का मूल यही प्रेम तत्व है , जिसे आह्लादिनी कहा जाता । इसी प्रेम तत्व स्वरूपिणी आह्लादिनी से आनन्द की सत्ता है । आनन्द से ही होकर आह्लादिनी तक की यात्रा श्रीनिकुंज यात्रा है । आनन्द भोगपरक है अर्थात् आनन्द का भोग किया जाता है । संसार में इन्हीं आनन्द स्वरूप श्रीकृष्ण के आनन्द के अणुमात्र का सीकर समस्त भोग विषयों में उपलब्ध होता है । यहाँ से प्रारंभ हुयी यात्रा आनन्द के मूल और पूर्ण स्वरूप श्रीकृष्ण पर जाकर पूरी होती है । मुमुक्षु तक के जीव इसी आनन्द स्वरूप में या तो लीन हो जाते हैं या भक्ति देवी की सहायता से आनन्द भोग करते हैं । परंतु जो अति अल्प जीव इस आनन्द को प्राप्त करके भी पुनः अर्पित कर देते हैं उन्हीं आनन्दकंद के श्रीचरणों में अर्थात् आनन्द को आनन्द देना चाहते हैं वही इस आनन्द के मूल अर्थात् श्रीआह्लादिनी के पावन श्रीचरणों की प्राप्ति कर पाते हैं । आनन्द से होकर ही आह्लादिनी की प्राप्ति संभव है । यही निकुंज सेवालब्धि है । श्रीश्यामसुंदर ही कृपा कर निज मूल स्वरूप अर्थात् अपने ही उद्गम रूप , गहनतम् स्वरूप श्रीराधिका के चरणाश्रय प्रदान करते हैं । चींटी से लेकर श्रीब्रह्मा पर्यंत तक कोई सत्ता , कोई चेतना ऐसी कहीं है ही नहीं जो आनन्दकंद श्रीकृष्ण के सन्मुख होवे और उनके आनन्द का भोग न करे । संभव ही नहीं । परंतु एकमात्र , उन्हीं के मूल स्वरूप प्रेम तत्व स्वरूपा आह्लादिनी श्रीराधिका के श्रीचरणाश्रय प्राप्त   स्थितीयाँ ही ऐसी हैं जो उन आनन्दस्वरूप श्रीकृष्ण के आनंद को भी सहज ही त्याग उन्हें ही आनन्द देने में समर्थ हैं । श्रीप्रिया की अति नन्हीं सी परिचारिका भी आनन्दघन के बाहुपाश में बंध कर भी उनके आनन्दोपभोग से मुक्त रहती है । बडे बडे योगीजन जिनके रूप की हल्की सी आभा प्रकाशित होने से निज पथ से डिग जाते हैं , जिनके नूपुरों की मद्धिम सी झनकार परमहंसों को रसमय कर देती है उन्हें सर्वाकर्षक परम मधुरतम स्वरूप में नित्य पाकर भी ये मंजरीगण सहज ही बिना विचलित हुये उपेक्षित कर श्रीप्रिया चरण सेवा में तल्लीन रहतीं हैं । ये इन्हीं के प्रेम तत्व स्वरूप श्रीप्रिया जू के आश्रय का चमत्कार है । सुख सन्मुख हो , आनन्द सन्मुख हो परंतु उसे सुखी करने की भावना नहीं सहज वृत्ति प्राणों को दग्ध करे वह प्रेम है । परंतु काम ही खींच कर ले जाता है इन आनन्दकंद के श्रीचरणों तक जीवमात्र को , जहाँ से ये ले चलते हैं अपने हृदय निकुंज की ओर जहाँ नित्य विराजमान हैं इनकी आह्लादिनी श्रीप्रिया इन्हीं के सुखार्थ .........

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