रस और ... पिपासा
आप को पता आप क्या चाहें हो... रस । रस ही खोज रहें हो ... परन्तु यह रस चाहने पर भी कहीं अनुभूत क्यों नहीं होता । जगत जुटा चुके किसी सर्ववैभव सम्पन्न के पास क्या अभाव है ...रस । सर्व जगत के त्याग पर श्रीकृष्ण माधुरी में डूबे किसी याचक से दिखते दीन के पास आखिर क्या विशेष निधि ...रस । श्रीकृष्ण रूपी रस । या कहिये युगल रस की नित्य झाँकी ...! एक और सम्पूर्ण ब्रह्मांड खोज रहा उन्हें ... एक ओर वह नित्य अनुभूत ऐसे रसिक हृदय में ।
क्यों हम सब रस के लोभी हो कर , सर्व रूप उसे खोजकर भी रस को अनुभूत नहीं कर पाते । अपितु श्रीकृष्ण माधुरी रूपी रसनिधि ही सर्व रसों की मूल निधि है यह भी ज्ञात हो जावें तब भी क्यों रस से एकता-अभिन्नता अनुभूत नहीं होती ।
रस के पीछे भागते प्राणियों से एक चूक होती ...रस का लोभ है , रस के जीवन का नहीं । अब रस का जीवन ही हृदयंगम न होवें तब तक कैसे रस से एकता होवें रस और रस का जीवन एक ही है ...
जिनके पास रस का जीवन है वहाँ है नित्य रस ।
रस का जीवन क्या है ...तृषा ! ...नव नव लोलुप्ता । रस की पिपासा ही रस है , हमें रस चाहिये उस रस की पिपासा के बिना ।
रस ही प्यास है और प्यास ही रस... कितना विचित्र प्रतीत होता है न । रस और प्यास एक कैसै ... जगत में सदा द्वेत ही चहुं ओर परन्तु श्री युगल के प्रेम राज्य में द्वेत कुछ होता ही नहीं अर्थात नित्य रस-पिपासा एक है ॥ जगत में प्यास अलग तत्व है और जल अलग वस्तु ॥ प्यास होने पर जल पी लिया जाता और तृप्ति हो जाती परन्तु श्यामसुन्दर के लिये रस ही प्यास है तो उनका रस कौन ॥ उनका रस तो श्री प्रिया ही हैं न तो वही तो उनके नेत्रों में प्राणों में हृदय में रोम रोम में प्यास बनकर भी समायी हैं । यह कोई काल्पनिक बात नहीं वरन परम सत्य है । स्वयं श्यामा ही नेत्रों से प्यास रूप दृष्टि बनकर प्रियतम नयनों से झलकती हैं और वही रस रूप दृश्य भी हैं ॥ बडी अदभुत स्थिती है यदि गहनता से अनुभूत की जावे तो ॥ भीतर प्यास वही बाहर रस तो रस जब भीतर उतरे तो प्यास ही वर्धित होवे न भीतर ॥ दोनों स्थितियाँ ही नित्य अतृप्त ॥ तत्व ही स्वयं का बोध कर सकता अन्य नहीं तो श्री श्यामसुन्दर में प्यास का अनुभव श्री प्रिया ही कर पाती ॥ शेष तो उनसे रस ही पाते ...यही प्रिया रूपी प्यास ही तो नित नव केली उन्मुख करती श्री प्रियतम को ॥ भीतर नव-नव तृषा का सृजन करती और बाहर रस सरसातीं ॥ प्रियतम के उर में नित्य नवीन लालसा का उदगम भी यही श्री प्रिया हैं और उन नव लालसाओं की पूर्ति करने वाला कल्पतरु भी वहीं नवल नागरी हैं ॥ यद्यपि लीला रस हेतु दोनों में से कोई यह तथ्य नहीं जानता (योगमाया जी के आश्रय से) तभी तो लीला में अनुपम रसानुभूति कर पाते युगल ॥ निज स्वरूप से अनभिज्ञ बने रहना ही तो रस का हेतु है ॥। दोनों ही स्वयं को रसविहिन जानते और परस्पर को रसदाता ॥ दोनों शिशुवत सरल निश्छल और भोले हैं ॥ और इन दो भोले शिशुओं को जिन्हें स्वयं का भी भान नहीं रहता , प्राणवत सहेजने के हित सखिगण सदा तत्पर ॥ ...अतः जितनी हम रस के जीवन रूपी तृषा की चाह करेंगे वहाँ रस ही हृदयंगम होगा ...तृषा तो चाह होगी न । अतः जीवन रस लालसा नहीं । रस की तृषा की लालसा करें । प्यास खोजिये ...तृप्ति तो पिपासा की अनुगामिनी है । व्याकुलता - लोलुप्ता - पिपासा - तृषा का ही मूल हममें अभाव है । रस तो नित्य है । अपने मे नित्य रस का नित्य वास *तृषा* खोजिये ...पिपासा । तृषित । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी ।
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