क्या कभी देखें हैं सखी वे मोहे .......
सखि री ! मोहे वा को दिखाय दे न ......सखि न जाने कितने युग बीत चले री आज तक इस राधा की एक बूंद भी श्यामसुन्दर के नयनों में न उतर सकी .......एक बार मोहे दिखाय दे न .......क्या कभी स्पर्श कियो वा ने मोरा .......सखी री वा के अंग लगाय दे न मोहे ......ऐसो लागे जैसे रोम रोम मेरो प्यास को सिंधु होई जाय रयो है .......एसो लागे जैसे वर्षों से प्यासी अखियाँ वृष्टि की प्रतिक्षा करतो मरुस्थल होई गयो हैं ........सखि जे प्राण जले जा रहे विरहताप से .......मोहे शीघ्र वा के निकट ले चल री .......
देखन में लगेगो , कि श्रीप्रिया श्रीश्यामसुंदर के दर्शनार्थ व्याकुल होई रयीं और उनके कमलमुख के दर्शन पाकर निज नेत्रों को सुख देनो चाहवें हैं । श्रीश्यामसुंदर के स्पर्श को उनके प्राण छटपटा रहे । पर ना !.... ये संपूर्ण तृषा श्रीश्यामसुंदर की है , जो प्यारी जू के रोम रोम को ........निज का कोई अनुभव है ही नहीं श्रीश्यामा पे । ना स्वसुख ना स्वतृषा ना स्वविरह ना .........वे मात्र श्रीश्यामसुंदर की हृदय लालसा की मूर्तिवंत विग्रह हैं । और वे जे बात जाने भी ना हैं .....अखियाँ दर्शन की प्यासी .......बस यही अनुभूति उन्हें .....जो प्यास उनके नेत्रों में समा प्यास की अनुभूति दे रही है वह मात्र श्रीप्यारे के नयनों की प्यास है जो उन्हें निज अनुभव हो रही है व्याकुल किये दे रही ........कैसो बुझेगी यह प्यास , बस इतना जानें हैं वे .......जब वे पिय सन्मुख होंगीं , बस यही मात्र उपचार उनकी इस प्यास का .......ले चल री सखि पिय सन्मुख ......कबहुँ रूप माधुरी पियो ही नाय .......कौन न पियो रूप माधुरी , कोऊ कहे श्रीप्यारी जू न पीं .......ना ! प्यारी जू तो बस अनुभव कर रही ना पिबन को ......पिये तो प्यारे कबहुँ नाहीं .......कबहुँ नाय पिये ! ........हां आज तक कबहुँ नाय पिये ........नित नव रूप ह्वै ना तो जे माधुरी या ते पूर्व कबहुँ नाहीं निरखे ......रोम रोम अकुलाय रयो , परसन हित .........वा के अंग लगे ते ही सीतल होवें .........कहा को रोम रोम अकुलाय रयो .......जा पे निज कछु होवे तो रोम रोम सीतल होवे चाह्वे ...........रोम रोम तो अधीर होय रयो वा नन्दकिसोर कूं .....जा समायो या भोरी के रोम रोम माहिं .......तो जे जाने निज अकुलाहट .........कैसे मिटे जे छटपटाहट अब ! जाय समाय पिय अंक भरि लीन्हीं .............पर तबहुं चैन नाय परे री , क्यों ..........क्योंकि , पीवे वारे कू निज प्यास को पतो नहीं ....पतो है केवल पिवाने वारे कू ........तो वो अति आकुल व्याकुल कि तनिक और .....तनिक और .......पीवे वारो कब तृप्त होवे , जे वो खुद जान ही नाय सके .........जे तो जाने वा को रस .......अद्भुत है न ! रस जान रयो तृषा को और तृषा जान रही मात्र रस ........नाय समझो !...........जो रस है वह अनुभव कर रयो प्यासे की तृषा कू और जो प्यासो .......वो अनुभव कर रयो रस की तृप्तिन कूं ..........रस भीतर प्यासे की तृषा रहती ........तृषित भीतर रस कू वास ......रस (श्रीश्यामा ) , तृषा कू जी रयो और तृषा (श्रीश्यामसुंदर ) रस कू जी , रसराज होई रयो......... ...........
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