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अभिन्नतामय प्रेम

अभिन्नतामय प्रेम ..........प्रेम है ही वह जो दो को एक कर दे ........प्रेमास्पद से संयोग मानों स्वयम् से मिलना .......प्यारे से वियोग .....जैसे स्वयं से ही विरहित हो रहे ........क्या संभव है उस प्यारे से वियोग जो हृदय मन प्राण चित ........सर्वरूप हो विलस रहा प्रेमी में ........जो जीवन हो जी रहा आपको .......आप नहीं जी रहे वरन वह प्रेमास्पद जी रहा आप हो ......क्या संभव है उसी से वियोग कभी ........प्रेम अर्थात् संयोग और वियोग का एक ही काल में  एक साथ आस्वादन । जिससे पृथक अस्तित्व ही नहीं उससे वियोग ........जो रोम रोम में न केवल समाया हुआ , वरन रोम रोम ही वही ......वह दूर प्रतीत होता हुआ । कैसा प्रेम है यह जो मति में न समावे .....जिसका स्वरूप वाणी से न कहा जावे । जैसे स्वयं को जीते हुये स्वयं का ही बिछोह .........एक में द्वै और फिर बिछोह ........प्रेम ही है जो एक में द्वै की अनुभूति सिद्ध करता है और यही तो सबसे बडा संयोग भी है कि एक में ही द्वै हो गये ........दो रहे नहीं भिन्न .......संयोग की परमावस्था यह । जब एक में ही द्वै तो फिर विरह कैसे .......विरह अनुभव हो रहा तृषा के कारण .....क्या निज प्राण  तन्तुओं से विलग हो सकता कोई ......पर फिर भी ऐसे विरहित कि जैसे स्वयं के मिलन हित तडपे .......जैसे स्वयं के ही विरहानल में जलता कोई हृदय ......स्वयं बार बार इसलिए कहा जा रहा कि इतना अद्वेत है ......परंतु प्रेम का स्वरूप तो देखिये फिर भी विरह ...........क्यों ! .......क्योंकि हृदय की प्यास जो नहीं बुझ रही ......किसके हृदय की है यह प्यास ..........यह प्रेम है श्रीवृन्दावन के प्रेम विलासी दो प्रेमियों का ........यह प्यास है दो नित्य तृषित प्राणों की जो प्रति रोम मिलित हैं परंतु प्यासे इतने कि जैसे युगों से न देखा परस्पर को .......आहा !..........कैसे और क्या वर्णन करे कोई । एक हैं और एक होकर भी प्रति रोम जैसे दहक रहा विरहानल से ..........बुझती ही नहीं यह प्यास ........यह प्यास ही विरह है ......यही नित्य संयोग में नित्य वियोग का रसास्वादन करा रही प्रेमोपभोग करते प्यारेप्यारी जू में । रोम रोम परस्पर समाया हुआ ......बाहर भीतर हर ओर से पर हृदय प्राण अकुला रहे रसदान को ..........रसपान को जैसे एक कण भी छुआ ही ना अभी तो ........परस्पर की तृषा उद्देलित कर रही दो रससिंधुओं को .........प्रियतम में स्वयं और स्वयं में प्रियतम ............यही तो प्रेम .........यही इसकी विलक्षणता ......यही नवीनता .......

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