योगमायामुपाश्रिता .......
शिशुवत् दर्पन में निज प्रतिबिंब स्वरूपों से खेलना है , इसी हेतु प्रारंभ में ही कह दिया गया योगमायामुपाश्रिता .....अर्थात् योगमाया का आश्रय लेकर । बिना योगमाया के आश्रय ग्रहण किये श्रीरासलीला तो क्या कोई भी लीला नहीं घट सकती । किसी भी खेल में दो पाले होते है... जिन श्री प्रभु के ज्ञान का बिन्दु मात्र जीव को सिद्ध -अद्वेत ब्रह्मदर्शन में लीन कर देता है... उनके लिये दो की धारणा को धारण करने को योगमाया है ...वरन अभेद स्थिति में वह किसी खेल में पूर्णता से आनन्दित समावेश कैसे होंगे ??? माया जीव को द्वेत का भास कराती है , जो समस्त जागतिक लीला का आधार है । और जीव इसी माया का अतिक्रमण कर , निज ब्रह्म स्वरूप का साक्षात्कार कर इस लीलाचक्र से मुक्त होना चाहता है । योगमाया श्रीभगवान को द्वेत का आभास कराती है , बिल्कुल वैसे ही जैसे शिशु दर्पन में निज प्रतिबिंब को दूजा समझता है । यही द्वेत आभास उसकी केली का आधार होती है । ...योगमाया के संयोग से आनन्द को आनन्दित करती हुई आह्लादिनी-लीलाएं अनन्त-आनन्द की नित्य सुख निधि ही हो जाती है , प्रत्येक लीला में वह सम्पूर्ण तृप्त होकर भी सम्पूर्ण सहज हो डूब जाते हैं । एक सर्वव्यापी ब्रह्म पूर्ण अखंड स्वरूप से सर्वत्र व्याप्त है, जो आनन्द स्वरूप है । उसे न रसदान करना है न रसपान , वह निज स्वरूप में स्थित है । परंतु प्रेम के लिये , रस आदानप्रदान के लिये दो का होना अपरिहार्य है । और दो है नहीं तो योगमाया के आश्रय से अर्थात् निज शक्ति से दो का आभास ग्रहण करतें हैं श्रीभगवान , जिससे स्व में पर का बोध प्रकट हो सके । स्व में लीला संभव नहीं । योगमाया का यह आश्रय ही उनका स्वरूप और स्वभाव प्रकट करता है वरन जो व्यापक स्वयं है वह परब्रह्म अभिन्नता में कैसे अपने हाव भाव से खेलें... नारायण के लिये नारद भी उनका ही एक प्रकाश है , यहाँ पृथकता का अनुभव होने पर ही भक्त हृदय को सुख-सन्धान होवें... वयस्क स्थिति पर हम दर्पण के सन्मुख स्वभाव को नहीं रखते न... दर्पण में अपने प्रतिबिम्ब का सत्कार या स्वागत नहीं करते न... शिशु खेल लेता है दर्पण में स्वयं से परन्तु व्यस्क नहीं ...व्यस्क जानता यह मैं ही हूँ ऐसे ही स्वभाव का उद्घाटन हेतु हमें अन्य चाहिए... यह व्यस्क की दर्पण स्थिति उतनी बौद्धिक नहीं जितनी परब्रह्म के भीतर का अनन्त ज्ञानसिन्धु... यहीं ज्ञान मात्र प्रेम हो जाता श्रीयोगमाया के उपाश्रय से ।
कितनी अद्भुत बात है ना , कि वे निज प्रतिबिंबों संग खेल रहे हैं , वे ये भूलना चाहते हैं और हम ये जानना चाहते हैं । वे भूलने को उत्सुक हैं और हम जानने को । वे ही योगमाया उन्हें विस्मृति करा रहीं हैं और हमें स्मृति । इसी कारण वे योगमाया कहलातीं हैं । योगमाया ....जो योग करा दें । उन्हें भुलाकर , हमें स्मरण करा कर । उन्हें स्मृति होते ही खेल समाप्त .......बोध होते ही दर्पन में अनुभव होता दूजा , निज प्रतिबिंब हो जायेगा और लीला प्रवाह अवरुद्ध .... तृषित । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी ।
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