श्रीकृष्णकर्णामृत श्लोक ४
श्रीश्यामसुंदर का सौंदर्य आहा ! सौंदर्य की अनुपम राशि । श्रीकिशोरी नेक सो कृपा की कोर करें , तनिक सो निज प्रेम राज्य की सुगंधि से हमारे प्राणन को सुवसासित करें , तब ही इस अद्भुत रूप राशि का कोई बिंदु हमारे दृगन में समा सके । रस का अगाध सिंधु लहरावे जैसे ऐसो रसराज की रूपमाधुरी ......ललाट को चूमतीं नील अलकावलियाँ , ये घुंघराली लटें आहा ! जैसे अभी अभी गगन पर विराजमान हुये नव तरुण मेघ की श्यामलता पर मुग्ध हुई बदलियाँ उसे आलिंगित करने को मचल रहीं हों । ऐसे श्यामसुन्दर के सलोने मुखमंडल पर फहरातीं केशराशि जैसे नीलइंदीवर के मकरंद का पान करने को उद्धृत भ्रमर । मस्तक पर बंधा मयूरपिच्छ चूडा अति ही शोभित हो रहा है । इस मयूरपिच्छ से श्याम मेघ की शोभा नहीं , वरन इन शोभाधाम का श्रृंगार हो इसने शोभा पाई है । प्यारे जू को श्रीवदन तो साकार माधुर्य का भवन ही है । परम सुशीतल , कैसों शीतलता .....जो नेत्रों प्राणों और हृदय को समस्त विरहजनित ताप से निवृत्त कर संयोग रूपी सुख में निमग्न करि लेय । परम मधुर सौंदर्य की समस्त उपमाओं को परास्त करता परमोदार वक्षस्थल आहा !.........चंद्रमा की मधुर शीतल कांति सा सर्वसुखकारी । और इस हृदय को हर लेने वाले हृदयस्थल से आलिंगित ये बैजयंतीमाला .....क्या क्या उपमा कही जावे इस मधुरता की , कि नेक सी छुअन इस मोहकता की हमारे हृदय पर स्फुरित हो जावे । ऐसो लागे जैसे अभी अाकाश पर उदित हुये नील चंद्रमा को सुंदर अति कोमल फूलन से सजाय दियो । चंद्रमा पे फूल आहा !......फूलन की कोमल पांखुरियों से छन छन कर आती नील कांती .....पर ये रूप निरा रूप ही तो नाय है । ये तो प्रेम को रूप है रस को रूप है , तो मधुरता स्वत्व यहाँ । इतनो मधुर इतनो मधुर ....कि रोम रोम को जैसे शहद पवाय दीनो । निरखत निरखत लागे कि अपने रोम रोम से ही मधु झरने लगा । जैसे सागर में चंचल लहरें उसके सौंदर्य को अनन्त गुणित करतीं हैं वैसे ही रूप के सिंधु मे तरंगायित होती माधुर्य की अनगिनत लहरें या की मोहकता को प्राणों का अमृत कर रहीं हैं । यह ऐसो रूपचंद्र हैं जिसका नित नवकैशौर्य ही उसकी उज्जवलता है और लावण्य ही परम कांति । वेणु रूपी हृदयगीत को स्वरगान कर , सुधा की अनन्त वृष्टि करते ये वेणुगोपाल । वेणु की स्वरलहरियाँ प्रेम रसधारा की सरस बौछारें हैं जो संपूर्ण श्रीवृन्दावन के प्राणों में प्रेम का अभिसिंचन कर रहीं हैं । कण कण अणु अणु इस रसधारा से भीज कर इन नन्दकिशोर पर प्राण उत्सर्ग करने को आकुल व्याकुल हो रहा । निज हृदयेश्वरी की हार्दिक प्रीती का प्रति हृदय वितरण कर अनन्त हृदयों को उसी परम प्रीती से आप्लावित कर रहे ये श्रीवेणुमाधव । श्यामसुन्दर के हृदयरस रूपी प्रेमसुधा से सुधास्वरूपा हुयीं अनन्त गोप रमणियाँ , अपने तन मन प्राण हिय जीवन सर्वस्व इन्हीं ब्रजनिधि पे वारने को अधीर हो इन्हें परिसेवित कर निज निज जीवन को सफल कर रहीं हैं । जैसे सागर के मध्य अवस्थित चंद्रमा को रसाभिषेक करने हित अनन्त लहरें खिंची चली आतीं हैं ऐसे ही ब्रजराजकुमार श्रीकृष्णचंद्र पे सर्वस्व समस्त स्व , न्यौछावर करने को तत्पर ये सौंदर्य प्रेम प्रतिमूर्तियाँ श्रीगोपबालायें अभिलाषित हो रहीं हैं । प्रेम की रूप की रस की अनिर्वचनीय दीप्ति से दैदीप्यमान यह नीलमणि हमारे हृदय को भी अपनी नीलआभा से सुरभित करे ॥
Comments
Post a Comment