प्रेम सिद्धि .....निकुंज लीलायें
क्या है प्रेम .......कैसा है प्रेम .......ना जाने क्या क्या लिखा गया , कहा गया सुना गया ....प्रेम में अनन्तानन्त गहराई है जो नित्य नवीनता को हृदय में उद्घाटित करती जाती है । सामान्यतः श्रीयुगल की गहन परस्पर रसलीला को केवल रसार्थ ही समझा माना जाता है । परंतु यह गहनतम् प्रेम की गहनतम् आवश्यकता है । केवल रस हित खेली जा रही कोई विलास लीला भर नहीं है यह , यह लीलायें श्रीयुगल के स्वरूप की अपरिहार्यता है । लीलायें श्रीयुगल का निज स्वरूप हैं कोई विलास का विहार का मेला मात्र नहीं । श्रीयुगल की केलि विहार उनका निज स्वरूप हैं । यह बात समझानी तनिक दुरुह है पर प्रयास तो करना ही ......निज स्वरूप स्थिती सबकी प्यास होती है चाहें वह जीव हो अथवा स्वयं श्रीभगवान । हम जीव जगत में क्या है प्रेम .......कैसा है प्रेम .......ना जाने क्या क्या लिखा गया , कहा गया सुना गया ....प्रेम में अनन्तानन्त गहराई है जो नित्य नवीनता को हृदय में उद्घाटित करती जाती है । सामान्यतः श्रीयुगल की गहन परस्पर रसलीला को केवल रसार्थ ही समझा माना जाता है । परंतु यह लीलायें गहनतम् प्रेम की गहनतम् आवश्यकता है । केवल रस हित खेली जा रही कोई विलास लीला भर नहीं है यह , यह लीलायें श्रीयुगल के स्वरूप की अपरिहार्यता है । लीलायें श्रीयुगल का निज स्वरूप हैं कोई विलास का विहार का मेला मात्र नहीं । जीव जगत में हम श्रीभगवद् स्वरूप से तात्पर्य मात्र ऐश्वर्य परक ,शक्ति परक स्वरूप से मानते समझते हैं । परंतु श्रीभगवान का प्रेम स्वरूप इससे कहीं अधिक व्यापक और नित्य है । ऐश्वर्य का विस्तार अनन्त लोकों के रूप में नित्य है ही जहाँ उन्हीं की शक्ति अनन्त रूपों में अनन्त सृष्टियों का संचालन करने में पृवृत्त है । परंतु प्रेम स्वरूप श्रीश्यामसुंदर के इस परम गहनतम् नित्य स्वरूप की उपलब्धि मात्र नित्य लीलाओं में (श्रीनिकुंज लीलाओं में ही पूर्णता से )संभव हो पाती है । निकुंज लीलायें श्रीश्यामसुंदर की निज स्वरूप की परिपूर्णतम् उपलब्धि , आस्वादन और स्थिती है । यह उनका स्वत्व है , अखंड स्वत्व । जीव अपने ज्ञानमय ब्रह्म स्वरूप को अनुभव कर फिर वह ज्ञान स्वरूप भी आनन्द स्वरूप की उपलब्धि पाकर पूर्ण तृप्त हो जाता है । परंतु आनन्दस्वरूप श्रीकृष्ण अपने परिपूर्णतम् स्वरूप अर्थात् प्रेमस्वरूप की उपलब्धि हेतु नित्य तृषित रहते हैं । वे प्रेम की ऐसी अखंड धारा हैं जो मार्ग के समस्त व्यवधानों को चूर चूर कर नित्य अनवरत प्रवाहित होती जा रही है । किसी भी जीव के किसी गुण दोष कभी इस प्रेमधारा के प्रवाह में बाधक होते ही नहीं । जिस प्रकार अग्नि सबका भक्षण कर लेती है उसी प्रकार श्रीकृष्ण का अखंड प्रेम रूपी अनल समस्त गुण अवगुण का पान कर सदा गतिमान रहता है । हम जीव निज स्वभाव अनुरूप होकर गुण दोषों का विवेचन करते हैं परंतु हम कल्पना भी नहीं कर सकते कि श्रीकृष्ण का प्रेम कैसी अखंड अनवरत धारा है जो न गुण से आकर्षित होती है ना दोषों से प्रतिकर्षित । उनकी इस प्रेम धारा की पूर्णता निभृत निकुंज की गहनतम् प्रेम केलियाँ हैं । ये मात्र कोई रसास्वादन हेतु नहीं हैं वरन यह प्रेम तत्व की पूर्णतम् सिद्धि हैं पूर्णतम् लब्धि है पूर्णतम् नित्य स्थिती है । प्रेम तृषा का ही स्वरूप है तो इस स्थिती की तृषा उनमें नित्य विराजमान है । जिन्होंने दिव्य प्रेम का सीकर मात्र कण प्रसादी पाया है वह इसकी तृषा को सहज ही जानते हैं । प्रेम की तृषा भी हम जीवों के लिये बहुत विचित्र है जिसे प्रेम कण पाये बिना जानना भी दुष्कर है । संसार से सर्वथा विपरीत , ऐश्वर्य से सर्वथा विपरीत स्थिती प्यास है यहाँ । श्रीकृष्ण सदा जीवों की ओर आशा भरी दृष्टि से निहारते हैं कि कोई जीव एक बार प्रेम से पुकार भर ले उन्हें । उनके हृदय की स्थिती कही ही नहीं जा सकती । कोई जीव सकाम भाव से भी जब उन्मुख होता है तो जिस अपार आनन्द की प्राप्ति होती है उन्हें , उसका वर्णन भी संभव नहीं । परंतु उनके हृदय की इस गहनतम् अनन्ततम् प्यास की पूर्ति जीव जगत की सामर्थ्य ही नहीं । इसे केवल वही पूर्ण करने में समर्थ हैं । इसी हेतु ये निकुंज लीलायें । मात्र विलास सुख नहीं हैं ये श्रीयुगल केलि .........हमारे प्यारे श्रीश्यामसुंदर के हृदय की गूढ़तम् नित्य तृषा और नित्य सिद्धि है यह स्वरूप स्थिती की ......
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