प्रिया लाल को मिलन है सर्व सुखन को सार ।
बरसत नित चहुँ ओर यही बनकर मधु रस धार ॥
रसपगे रसमगे दोऊँ के दोऊँ रसीले नयन चकोर न जाने कौन सी रसीली बतियों मे नाय जाने कब ते उलझो परे हैं .............रत्नों की निकुंज है जे .......या फूलन की निकुंज .........अरी जे तो मणिमय फूलन से भरी हुयी रतनारी लताओं की निकुंज है .........ऐसे मणिवत् फूल , जामें श्रीरसिकयुगल की प्रेमझांकी सर्वत्र प्रतिबिंबित होय रही ........ आह ! .........फूलन में फूलन की छवि ... दोनों के दोऊँ नयन एसे उलझे भये हैं कि सुलझना ही बिसर गयों हैं ..........ऐसो लागे कि दो रस ते सागर उफन रयो कभी परस्पर में समाय जाने हित .......तो कभी परस्पर को समाय लेने हित .......कभी लागे उन्मुक्त नीलाभ गगन माहीं दो प्रेम कपोत स्वच्छंद विचरण कर रयो .........ना जाने कौन कौन रस लहरियाँ इन दृगरससिंधुओं में छिन छिन माहीं किलोल कर रहीं ...........रससिंधुओं का परस्पर रसनिमज्जन ही तो सर्वसुखसार सर्वरससार ह्वै । इन्हीं रससागरों में तरंगायित लहरें मेघों से रस बन बरस रहीं है चहुंओर ........ज्यूं ज्यूं जे दोऊ फूल रस किलोल में भीज रहें हैं , त्यूं त्यूं इनको रस सर्वत्र बिखरता जाय रयो है ..........परस्पर जल क्रीडा करते दो सुकुमारों के समान रस की तरंगे एक दूजे की तरफ उछालते इन फूलन को पतों ही नाय कि ये रस कल्लोनियाँ समस्त निकुंज को रससिक्त करती जाय रहीं हैं ........गहन प्रेम में आकंठ डूब इठलाते मुस्काते खिलते महकते इन दोऊँ चंद्रकमलन कू कहा पतो , कि ना जाने कितनी कलियाँ चटख उठी इनके अधर पल्लवों की तनिक सी थिरकन से ...........ना जाने कितनी लतायें तरुओं से लिपट गयीं प्रेमविह्वला हो ........ना जाने कितने प्रसूनों की हृदय अभिलाषा पूर्ण करने को उनका हिय पराग ले इन हियनिधियन पर लुटाने सुगंधित समीर बह चला इनकी ओर ..........ना जाने कितने नवीन हिय , पल्लव से खिल उठे रतनारी लताओं पे .......झंकृत हो उठे अनन्त राग रागिनियाँ कोमल पल्लवों के नर्तन से , जो झूम झूम युगल प्रेम के गीत गाय रहे हैं ........मेघों से झरती नन्हीं नन्हीं रस की लडियाँ युगल हित थिरकते मयूरों का अभिषेक करने को उतावली भयीं हैं ........और सखियाँ .....आहा ! उनका तो कहना ही क्या ........किसी को रोम रोम सिंहर रयो है तो किसी की पुलकन महक रही .......कोई के कोमल गात ते प्रेम स्वेद बन बह चलो है ......तो कोई अचेतन हुयी जाय रही .........तो कोऊ के रोम रोम ते आनन्द की तरंग स्पंदित होय रही ..........पर सबन की एक ही अभिलाषा ......एक ही हृदय राग ......एक ही सुख .......लता छिद्रन ते इन दोऊँ रसकेलि तल्लीन प्राण निधियों के सुख को निहारन .......प्यारे प्यारी जू के प्रेम का उच्छलित सिंधु निकुंज के कण कण कू रसमय कर रयो है .......श्रीवृन्दावन का अणु अणु रसधाम होय रयो है । गाढ .......और गाढ ........और मधुरातिमधुर होता हुआ .........यह श्रीवृंदावन रस नित्य नूतन .......नित्य अनन्त की ओर प्रवाहित होता हुआ ............
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