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आहा .....री सखी बडों सुख पिय निरखन में

*आहा .....री सखी बडों सुख पिय निरखन में ...*

हां री, मेरी प्यारी सखी बडा ही सुख है री प्यारे को निरखने में । तू कभी निरखी है उन्हें । कभी देखा है उन कोटि-कोटि  प्राण सुकोमल नवल नवघन सुंदर ललित किशोर को अपनी प्राण संजीवनी प्रिया को भावमय प्रेम पूरित नेत्रों से अनवरत निहारते हुये । आह री ......देख तो जरा उनके मुखकमल का हास्य देख तो जरा सखी उन प्रफुल्लित कमल लोचनो का विलास देख तो तनिक उन मधुर अधरों का विकास । हां री सखी यही तो जीवन है अपना उनका सुख । देख न प्यारी तू देखती काहे नहीं मोहे तो ऐसा लागे कि मेरा जीवन ही उनके सुख पर टिका है री । उनका सुख ही तो मेरे प्राणों की मात्र संजीवनी है । जब वे अपनी प्राण संपदा को निर्निमेष नेत्रों से निहारते हैं तो इन प्राणों में चेतना का प्रवाह होने लगता है । उन्हें देख यू लागे है कि जैसै उनके कमलदल लोचन मधुकर होकर अतल रस सिंधु में डूब गये हैं । जी चाहता है कि वे नयन मधुकर कभी न निकसे रससागर से सदा यूं हि निमग्न रह कर निमग्न रहें । प्यारी सखी कैसै कहुं तुझसे कि क्या चाहता ये हृदय । जानती है ये श्वासें क्यों चलती हैं क्योंकि वे सुखी हैं उनका सुख ही तो हमारे प्राणों की डोरी है री ॥ देख तो तनिक अपने प्राणों को अपने प्राणों को निरखते हुये । देख तो री ......। जयजय श्रीश्यामाश्याम जी

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