बसंत .......नव बसंत आहा !
नव फूलन को खिलन को ऋतु ह्वै जे बसंत । पर हमारे प्यारे प्यारी के प्यारे वृंदावन में तो जबहीं दोऊ रसीली फूल मिलें ,तबहिं बसंत होई जावे । जे दोऊ रसभरे लावन्य कू सार सौं ,स्निग्धता कू छलकातो , अति निर्दोष ,परम कौतुकी फूलन जबहिं परस्पर की सुगंधि सौं अकुलाय अकुलाय एक दूजन पे वारि जावें .....जबहिं जाको रस घुलमिलकर एक होनो चाहो , जबहिं जे नीलपीत कमल परस्पर के प्रेमरस मकरंद को पिय पिय वा में ही डूब जावें ,तबहिं तो इन नीलपीत फूलन की मिलित कांति स्वर्णिम छटा होई बिखर जावे ।ज्यूं ज्यूं जे नील पीत फूल पास आवें ,सरसरावें ,हिलमिलावें लहरावें , खिलखिलावें त्यूं त्यूं चहुँओर बासंतिक उन्माद छा जावे । या फूलन की मिलित मधुमयि अंगसुगंधि सीतल बयार होय महकावे वृंदावन के कन कन कू। परस्पर रस में भीजते जे तारुन्यमृत में फूलते दोऊ फूल आहा !...........इन फूलन को भिगोय भिगोय ,इन्हीं का रस पूरो वृंदावन के द्रुम लता पल्लव वल्लरियों अरु कुसुमों में पराग होई भरि जावे । जबहिं जे कोमल फूल परस्पर मंद मंद बतरावें ना ,तबहिं भौंरन की गुनगुन , कोकिल की कूहु कुहु , पपीहे की पियु पियु , सरितान की कल कल , झरनन की झिरमिर सब की सब अति विस्मित होई या की मधुर गुनगुनाहट में ही डूब जावें । रस ते भीज भीज जब जे फूल तनक मुस्काई देवे तो आहा !...........जे बसंत और पीत हुई जावे जैसे सुनहली सीतल धूप ........या नील पीत फूलन की मिलित सतरंगी आभा छिटक रही संपूर्ण वृंदावन में नित नूतन बसंत होकर ........या को मधुर प्रणयगीत बिखर रह्यो निकुंज उपवन में नित नव बासंतिक राग होकर ........चहुँओर बस यही झंकृत .......प्रियालाल ......प्रियालाल ..........प्रियालाल ......
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