*साधना और प्रेम प्राप्ति*
वास्तव में साधना और प्रेम दो भिन्न स्थितियाँ हैं । साधना मार्ग है और प्रेम महान लक्ष्य ...मधुर तप्त रसामृत-फल । मूल में सन्सार जिसे साधना कहता वह प्रपञ्च ही है जब तक हृदय से उद्घाटित ना होवे । आज बहुत से जीव चल रहे पर ना पहुँचने को , चल इसलिये रहें कि दिखता है यह भी ... ... जो हृदय से साधन हीन है , उसी हृदय में साधना पथ प्रकट होता है । साधना तैयारी है उस प्रेम को सहेजने की जो प्रेम रूप श्री भगवान की परम अहेतुकी कृपा से जीव को सुलभ होता है । जीव हृदय अनन्त जन्मों के संस्कारों के मल से आच्छादित है कि यदि श्री भगवान प्रेम दान करना भी चाहें तो भी वह प्रेम हृदय को स्पर्श कर ही नहीं पाता । इन्हीं माया जन्य संस्कारों के मल को दूर करने के लिये सन्त और भगवद् जन साधना का मार्ग बतलाते हैं । साधना न हमें प्रेमी बनाती है न ही श्री भगवान के निज सुख से इसका कोई संबंध है वरन साधना हमारे अपने मलिन चित्त की शुद्धि के लिये परमावश्यक है । प्रेम है स्व का सम्पूर्ण अभाव भीतर बाहर अर्थात प्रेम-साधना अपने अहंकार का दाहसंस्कार होगी । अपनी चिता , अपनी अर्थी , अपना दाह करने पर प्रकट होता है । स्थूल देह भर का संस्कार नहीं , मूल भाव जो हम स्वयं को पाते है वह हम स्वयं को भस्म करें । बाह्य-साधना से प्रेम प्राप्ति होगी यह उचित नहीं लगता क्योंकि प्रेम तत्व केवल श्री भगवान् स्वयं या उनकी इच्छा से ही उनके कोई निज जन परम अनुग्रह कर प्रदान करते हैं ॥ प्रेम कृपा साध्य है साधनसाध्य नहीं ॥कृपानुभूति प्रेमसाधना है , कृपानुभूति स्व का सम्पूर्ण अभाव भी है । और जीव जब तक प्रेम प्राप्ति से दूर है तब तक अहंता का संपूर्णता उन्मूलन असंभव है ,चाहे वह साधना की ही अहंता ही क्यों न हो ॥ किसी न किसी अणु रूप में प्रकट या अप्रकट रूप में वह अहंता जीव चित्त में रहती ही है । उसका संपूर्ण उन्मूलन केवल प्रेम प्राप्ति पर ही संभव है क्योंकि प्रेम का मूल ही अहंता शून्यता में निहित है । प्रेम का दिव्य गुण है कि प्रकट होते ही संपूर्ण ममत्व अपने अपने विषयों से हटकर स्वतः ही प्रेमास्पद श्री भगवान के चरणों में विश्राम पाता है जो उसके वास्तविक एवं मूल केन्द्र हैं । उस ममत्व को बलात् कहीं से हटाकर वहाँ जोडना नहीं पडता वरन हृदय प्राण स्वतः अकुला उठते हैं समर्पण के लिये । जब संपूर्ण ममता का विषय श्री चरण हो जाते हैं तो मैं मेरे प्रयास मेरी साधना मेरा सुख जैसी भावनायें निर्बीज हो जाती हैं । ऐसी भावनाओं के स्थान पर प्रियतम ही समस्त साधना मेरी प्रियतम ही साधनाओं का परम सुफल जैसे भाव हृदय में उदित होने लगते हैं । साधना से तात्पर्य अपने हृदय रूपी पात्र को मांजने से है । जिस प्रकार मल से भरे पात्र को कितना भी मांज लिया जाये पर उसमें दुर्गन्ध का कोई न कोई अणु रह ही जाता है उसी प्रकार माया भोग-विषय मल से मलिन चित्त को साधना से एक निश्चित सीमा तक ही शुद्ध किया जा सकता है । उसकी दुर्गंध के अणुओं का संपूर्ण उन्मूलन तभी संभव है जब भगवद् कृपा से उस पात्र में दिव्य प्रेम सुधा भर जावे ॥ और यदि बात की जावे कि साधक की लीला भावना अप्रकट क्यों रहती है तो इसका समाधान संभवतः यह है कि मार्ग पूर्ण होने पर ही लक्ष्य प्राप्त होता है । क्योंकि यदि साधना मध्य में रसप्रेम की मधुर लीलाभाव प्रकट होने लगे तो तब तक साधक उन लीलाओं के वास्तविक स्वरूप को न जानकर उनके बाह्य रूप से भ्रमित हो सकता है । अतः पूर्ण पात्रता मिलने पर ही लीला भावना प्रकाशित होती है चित्त में ॥
साधक की लीला भावना प्रकट क्यों नहीं होती (तत्सुखिया )। तत्सुख भाव ही वास्तव में प्रेम का वास्तविक अर्थ और स्वरूप है । या यूं भी कह सकते कि तत्सुख भाव ही प्रेम है ॥ तो यह प्रेम अर्थात् तत्सुख भाव प्रकट कब होता है । यह प्रकट होता है प्रेमास्पद से अभिन्नता प्राप्त होने पर क्योंकि वास्तव में आत्मा स्वयं से ही प्रेम कर सकता अन्य से नहीं । या यूं कहिये कि स्वयं से ही प्रेम संभव पर से नहीं । तो स्वयं हम हैं क्या आत्मा ही तो हैं । प्रणय राग अनुराग आदि से होता हुआ प्रेम जब अपनी पूर्णता पर पहुंचता है तब प्रेमास्पद से अभिन्नत्व लाभ कराता है । उस समय प्रेमी स्वयं को प्रेमास्पद में खोकर केवल उसी प्यारे को अनुभव करता है ।
स्वयं को उसी प्रेमास्पद में पाता है और उसी के सुख के लिये उसके प्राणों में तृषा उदित हो जाती है जो प्रतिपल वर्धमान रहती है । उस स्थिति में हम है पर खो गये है क्योंकि जिसकी वस्तु यह है , वह उनकी हो गई है तब शेष कुछ नही रहा यह समस्त अनुभूति प्रेम प्राप्ती होने पर ही अनुभूत होती हैं और तब ही रहस्य खुलता है निकुंज लीलाओं का । युगल दर्शन आलिंगन मिलन आदि के द्वारा किस प्रकार परस्पर को सुख देकर सुखी होते हैं । किस प्रकार युगल के लीला विहार में सखियों , मंजरियों , सहचरियों का सुख निहीत है ॥ जब तक ये लीला रहस्य श्री प्रिया कृपा से उजागर नहीं होते तब तक साधक का सच्चा लीला भाव बन ही नहीं सकता । अतः इन लीला भावों के वास्तविक अनुभूतियों के लिये प्रेम का संपूर्ण विकास होना परमावश्यक है ॥ वर्तमान में साधक बिना प्रथम सोपान पर पग धरे सीधे ही निकुंज लीलाओं में प्रवेश पाने को उत्सुक रहते हैं और निज-निज भावनाओं से लीलाओं की कल्पना कर लेते हैं जबकी बिना मंजरी या किंकरी भाव प्राप्ति के युगल की केली लीला दर्शन असंभव है ॥क्योंकि इन भावों की प्राप्ति पश्चात ही हृदय में श्री राधिका श्यामा जू का वास्तविक स्वरूप प्रकाशित होता है । और तब युगल की केली काम भोग नहीं वरन वरन अपने यथार्थ स्वरूप में अनुभूत होती है ॥
कुछ और भी स्पष्ट करना चाहुं , निकुंज सेवा भाव प्राप्ति के लिये रसिकों ने जो रीती बताई है उसका अनुसरण करना चाहिये । निकुंज उपासक कोई प्रत्यक्ष गुरु न मिलें तो किन्हीं नित्य-मंजरी जी को गुरुपद पर आसीन कर उनके आनुगत्य में सेवा भावना करनी चाहिये । यदि यह भी संभव न हो सके तो मन में श्री ललिता जू से प्रार्थना कर स्वयं कोई छोटी से छोटी सेवा की भावना करनी चाहिये ॥ जैसै निकुंज में सोहनी सेवा करना या पथ सिंचन कर देना । या स्नान के लिये जल ले आना अथवा माला आदि के लिये उपवन से पुष्प चयन कर लाना ॥ ऐसी कोई भी भाव सेवा नित्य करते रहने से श्री ललिता जू की कृपा अवश्य प्राप्त होगी और तदनंतर सेवा में विकास भी होगा ॥ परंतु समस्या यह है कि आजकल ये सब कोई नहीं करना चाहता । सब सीधे ही युगल के निज केलि कक्ष में प्रविष्ट होना चाहते हैं। जबकी वहाँ तक पहुँचने के लिये कितने भावों का क्रमशः विकास होना आवश्यक है । साधक युगल को भी मात्र नायक-नायिका ही जानते हैं और उनके लीला विलास में प्रवेश को अपना सिद्ध सहज अधिकार ॥
यह सब प्रेम की भावगत क्रमिक साधनाएं है । यहाँ भी एक समस्या यह कि वह क्रमिक विकास को न समझ मानी स्थिति से ही चिपके हुए रहना चाहते है जबकि मूल में कक्षा एक उपरांत दो में प्रवेश होता है परन्तु साधक अविद्या से न छूटने से प्रथम कक्षा को सम्पूर्ण जीवन ही पकड़े रहते है । साधना की क्रमिक गति में साधक अन्य के लिये निर्णायक होता नहीं है । क्योंकि कल वह कक्षा एक मे था और कभी स्नातक होगा । अतः जो कहेगा जाना-माना कहेगा , विकास प्रक्रिया अनुभव है तब अपना जाना-माना भी विकसित होता है । मूल भाव साधना गहराती है एकांतिक स्थिति में । तृषित । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी ।
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