श्रीराधा .......
सेवा करनी है ठाकुर जी की ,कैसे करें , क्या भोग धरायें ,कैसे श्रृंगार सजायें , कैसे क्या करें !.......प्रथम तो सेवा अपने सुखार्थ करनी है या सेव्य के सुखार्थ , यह चिंतन होवे । यदि अपने कल्याण के निहित उनकी सेवा की भावना है तो जैसे मन करे कर लेवें । परंतु यदि वास्तव में उन्हीं प्यारे के निज सुखार्थ सेवा लोभ जग गया है तो .......तो उनका सुख तो मात्र एक ही है श्रीराधा ......श्रीराधा ......श्रीराधा
सेवा का हेतु क्या ! सेव्य का सुख ...सेव्य का निज सुख । वह सुख नहीं जो हमारी विषयी मायिक दृष्टि में सुखरूप दृष्टिगोचर हो रहा , वरन वह जो नित्य प्यारे सेव्य के हृदय में हुलस रहा । जिसे नित्य पाकर भी वे नित्य तृषित हो रहे । उन परम प्रेमास्पद परम सेव्य का सुख श्रीराधा रूपी अमृतसिंधु हैं । इन परम सनेही श्यामसुंदर की समस्त इंद्रियों का एक मात्र ग्राह्य रसतत्व मात्र श्रीराधिका । श्रीराधा के अतरिक्त कुछ भी ग्रहण करतीं ही नहीं प्यारे निकुंजबिलासी की रस इंद्रियाँ । अब ये हमें सोचना है कि हम अपने इस मायिक स्वरूप से कैसे किस रूप इन्हें ये रस सुलभ करा सकें । इनका तो दृश्य भी श्रीराधा , सुगंध भी श्रीराधा , श्रवणामृत श्रीराधा , आस्वादन श्रीराधा और मधुर स्पर्श भी श्रीराधा .......। इनकी धरा गगन समीर जल सर्वस्व श्रीराधा .......इनकी पहरन ओढन बिछौवन सब श्रीराधा .....और तो क्या कही जावे इनकी ज्यौनार भी श्रीराधा । तो कैसे दें इन्हें श्रीराधा सुधानिधि ! वर्तमान स्थिती में एक श्रीराधानाम सेवा करना सहज सरल हमारे लिये । कि क्या भोग लगावें ,क्या सुनावें .....अरे पवावें इन्हे इनके कर्णों का अमृत । और कछु सेवा बने ना बने यह सेवा नित्य हो जावे कि धीरे धीरे प्यारे के कर्णपुटों में ये रस पिलाते रहवें हम कि श्रीराधा ......श्रीराधा ........
श्रीराधा .......श्रीराधा ........
निकुंज में सेवा चाहते न हम सभी तो उसका प्रारंभ यहीं से होगा । यही राधारस गान हमें और हमारे प्यारे को अपने सुधा सिंधु में ऐसे पाग लेगा कि स्वतः हमारे रोम रोम से श्रीराधाप्रेम रस निसृत होकर प्यारे के सुख का उपकरण बना लेगा । कम से कम निकुंज पथ अभिलाषी के लिये श्यामसुख की यह सेवा अभीष्ट है ही ।निज कल्याणार्थ नहीं प्रियतम सुखार्थ सुनावें नित्य उन्हें श्रीराधा .....श्रीराधा .....श्रीराधा .....
Comments
Post a Comment