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एकात्मकता श्रीप्रियालाल की

एकात्मकता श्री प्रिया लाल की

वैजयंती मालिका कैंकर्य सेविका उद्बोधन ...
सब कहते हैं कि श्यामसुन्दर की वेणु श्री राधा नाम उच्चारती है ॥ ऐसो ही तोसे कहुँ एक अनुभव अपना ॥ आज पिया के पास गयी जब और उन्हें हृदय सों लगाया तो जाने है क्या हुआ । पता है उनके प्रत्येक आभूषण के प्रत्येक रत्न से प्रत्येक मुक्ता से अपूर्व सुगंध बरस रही थी । जानती है किसकी थी वह दिव्य सुगंधि श्री वृषभानुजा की । वो छोटी छोटी रत्न लडियाँ वो शीश धरे हुये सुंदर मुकुट की नन्हीं नन्हीं सी मुक्तायें जिन्हें श्री राधिका ने स्वयं सजाया है उन्हीं के अपूर्व प्रेम को भरे हुये उनकी सुगंध बिखेर रही हैं । वो कर्ण कुंडलों की सुंदर झालर वो गले में सुसज्जित रतन आभरणों का प्रत्येक रत्न आहा जितना निकट जाती प्रियतम के उतना ही उनकी दिव्य सुगंध में डूबती जाती ॥ कपोलों से कपोल सटाकर जब पिय को लाड लडाया तो उनके कर्ण कुंडलों की मुक्ताओं में से आती श्री कुंजबिहारिणी की नाम ध्वनि से प्राण पुलकायमान् हो उठे ॥ जब शीश धरा वक्ष पर तब गले पडी बैजयन्ती माल से आतीं श्री प्रिया की महक पाकर यू लगा जैसै उसी में डूब जायेंगे ये प्राण ॥प्रत्येक पुष्प और पल्लव माला का श्री रासेश्वरी के चिन्मय स्पर्श से भरा हुआ ॥ नयन भर जब देखा पिय मुख तो देखा तिलकभाल में नयन अंजन में वहीं एक रस स्वामिनी समायी हुयीं हैं ॥ पिय के रोम रोम की छुअन पुलकन आनन्दित थी प्रिया के मिलित रोमावलियों से ॥ जब कपोल पर प्रीति चिह्न अंकन हित झुकी मधुर मुखमंडल पर तो उनकी श्वासों में घुली श्री राधिका सुगंध मम् श्वासों में समा गयी ॥ जब अधरों पर अधर धरें तो जाना प्यारी ही तो अधर सुधा प्रियतम की ॥ पूछी जब मैं प्राण पति से है कैसा अद्भुत रहस्य यह तो भीगे वचनों से बोले  पगली मैं हूँ ही कहाँ इस तन में । या में तो केवल मेरी प्राण स्वामिनी ही समायी रहती नित्य । स्पर्श न मेरा स्पर्श है ना सुगंध मेरी है । वाणी में भी घुली वही एक बस । मम् हृदय प्राण जीवन चेतना केवल वही एक तो बनी हुयी है ॥ मेरी सारी क्रिया गमन आगमन वही तो दर्शाती है नित्य । सब मुझे ढूंढते मुझे खोजते पर कहीं नहीं पाते जो परंतु मेरा संग तो वास्तव में मेरी प्रिया का सानिध्य है । मैं तो नित्य बसता बस उसमें और प्यारी रहती नित मुझमें ॥ तृषित । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी

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