रूपमाधुरी कहा ते कहिये
नयन रसीले बंकिम चितवन
अरुणिम अधर मोहक मुस्कन
श्रीचरन कमल की ओट लेय के
प्रेमसुधा जे नित अवगहिये
कहाँ तक कही जावे इन नन्द कुवँर की रूप शोभा । नित नव रूप अवधि को पाता इनका हृदयहारी सौंदर्य मधुरता का ऐसा केंद्र है जो सर्व ओर से चित मन हृदय प्राण और समस्त वृत्तियों को स्वयं में निमग्न कर लेता है । श्रीकृष्ण का एक एक अंग सुअंग रूप का ऐसा आवर्त है भवंर है कि जहाँ केवल डूबने का ही पथ है निकसने का नहीं । रोम रोम रसना होई जावे तो भी या को रूप को वर्णन नाय बन सके ।केवल संकेत भर ही तो किया जावे इनके चिन्मय रूप का । क्या रस वाणी में समा सके है । वाणी में तो मात्र शब्द ही समा सकते न । और ये शब्द संकेत ही तो करते हैं उस मोहक रूप राशि का । मेरे मांसलोभी नेत्रों की सामर्थ्य ही नहीं कि वे उस चिन्मय रूप राशि के अणुमात्र बिंदु का भी दर्शन कर पावें । सदा सदा से पांचभौतिक तत्वों में ही सौंदर्य खोजते मेरे नेत्र कैसे पावें उन छविधाम के छवि बिंदु को ........पर एक अतीव करुणावरुणालया परमोदारा अहैतुककृपापयोधि प्रेमसुधा सिंधु हैं जिनकी करुणा नित्य मुझ जैसे विमुख जीव को भी उन्हीं प्राणप्रियतम सर्वसौंदर्याधार श्रीश्यामसुंदर का शाश्वत सानिध्य प्रदान करने को कटिबद्ध है । वे महान वातसल्यस्वरूपिणी निखिलप्रेमविग्रहा श्रीकिशोरी ही निज भावकणों से भावित कर हमारे नेत्रों को वह प्रेमदृष्टि देतीं हैं , जो उन महान रूपसुधामूर्ति श्रीनन्दनंदन के रूप का दर्शन भोगार्थ न कर मात्र तत्सुखार्थ करती है । जीव दृष्टि भोगपरक है । जिस पर भी गिरती है कुछ न कुछ ग्रहण करती ही है ।श्रीकृष्ण सौंदर्य का भी निज सुखार्थ आस्वादन करना सहज स्वभाव है जीव दृष्टि का । परंतु प्रेमस्वरूपिणी प्रेमप्रदात्री श्रीश्यामा की अहैतुक कृपा से जब हृदय में प्रेमांनुकरण होता है तब यही दृष्टि भोगपरक न रहकर प्रेमपरक हो जाती है । अब यह निज प्रेमास्पद श्रीश्यामसुंदर पर गिरती है तो स्व के सुख हेतु नहीं वरन प्यारे के सुख हेतु ...... कि देखें हम परंतु सुख उन्हें हो !......यही तो भेद है प्रेमदृष्टि में और भोग दृष्टि में । सृष्टि में कहीं कोई ऐसा कहीं है ही नहीं जो श्रीकृष्ण के सन्मुख होवे और उनसे लेवे न । वे आनन्द की ऐसी महाराशि हैं कि उनसे हमारी ओर आती परमानन्द की उत्ताल लहरों को हम रोक ही नहीं सकते । उनसे बिना लिये हम रह ही नहीं सकते । परंतु इस शाश्वत स्थिती में भी यदि किसी महाभागा जीव के हृदय में उन्हें देने की इच्छा उत्पन्न् हो जावे तो फिर एक ही आश्रय है , उनका जो इन आनन्दघनसिंधु को भी आनन्द देने वालीं हैं । उन्हीं के प्रेमसारस्वरूप श्रीचरणकमलों की शरणागति हमें इस तट से (भोग )उस तट(प्रेम) पर ले जाती हैं ।निज भावप्रसादी देकर वे हमारे नेत्रों में वह अंजन आंज देतीं हैं , कि अब लाख सौंदर्यसिंधु उमडे नयन सन्मुख ,इन नयनों में रचे श्रीकिशोरी भावअंजन को निरखते ही वह प्रेमविह्वल हो आस्वादन की कामना करने लगता है । आनन्द की जो लहरें उस ओर से इस ओर आती थीं , अब श्रीमहाभाविनी की भावसुंगध पा यहीं से आनन्द ग्रहण करने लगतीं हैं । तब पूरी होती है किसी भावुक हृदय की प्यारे कुंवरलाल को सुख देने की साध । हमारे पास उन्हें देने की सामर्थ्य नहीं , उनके सुख की वस्तु नहीं तो जिनके पास है उनके आश्रय में जाने पर उनके भाव प्रभाव से वही प्रेम सुगंध हममें से सुवासित होने लगेगी जो इन त्रिभुवन कमनीय रससिंधु को रसिकशेखर किये रहती है । उन्हीं श्रीप्रेमअधिष्ठात्री श्रीराधिका के पादारविंदों में मेरी यह विनीत प्रार्थना है कि उनकी ही परम अहैतुकी कृपा कोर से मेरे भी चित्त में वह नीलज्योती समन्वित अपूर्वरूपराशि प्रकाशित हो । यह नीलज्योती सौंदर्य का लहराता सिंधु ही है । कोटि कमलों की शोभा को लजाता परम कमनीय मुखमंडल जिन पर कर्णचुम्बी विशाल नेत्र आनन्द से विस्तारित हैं । ये नलिनसुंदर लोचन समस्त प्रकार के दुखों का मोचन करने वाले हैं । यहाँ जागतिक दुख का स्पर्श भी नहीं । यह दुख तो महाप्रेमविधायिका प्रेमसौंदर्यविग्रहा श्रीकुंवरी का प्रणयक्लेश है । कैसे मोचन करते हैं ये कमल से लोचन इस प्रणयक्लेश का ........हृदय में उमडते रसप्रवाह भावनिवेदन जो रूप होकर झिलामिला रहे हैं श्रीप्रिया मुखकमल , उस रूपसुधा का पान कर सुख देय रहे हैं ये कमल लोचन ।श्रीप्यारी जू के रसभावों को निज हृदय संपुट में भरि भरि पीकर समस्त प्रणय क्लेश का , दुख का मोचन कर रहे हैं ये नीलनयन । यद्पि ये नयन हैं कमलवत् परंतु इनका स्वभाव रसलोभी भ्रमर का हो गया है । यह नीलकमल के से मधुर नयन नित्य निरंतर श्रीप्रियामुखकमल के रसमकरंद का पान करने में ही पृवृत्त हैं । श्रीप्यारी मुख माधुरी पान करने में जो स्वयं को भूल गये हैं ऐसे विशाल लोचन मेरे हृदय में प्रेमरस का उद्दीपन करें । प्रेमरस के मधुर आस्वादन से जिनका हृदय अति मधुर हो चुका है और वही महान माधुर्य अरुणिम अधरों पे मोहक मुस्कान बन श्रृंगारित हो गया है । श्रीप्रिया प्रेमसुधारस का महान आहला्द ही जिनके अधर पल्लवों की सुकोमलता है । श्रीप्रिया रूपसुधा का लोभ ही जिनकी अरुणाई है । और ऐसे अरुण अधरों से छिटकती मुस्कान समस्त त्रिभुवन को मोहित कर रही है । जिनकी घुंघराली नील केश राशि ने मयूरपिच्छ से सुशोभित हो रही है। श्रीप्रिया द्वारा अलंकृत प्रेमभाव रूप यह परम निष्कामता का दो्तक है ।ऐसी अपूर्व नीलरूपराशि मुझ जन्मजन्मांतरो के मांस लोभी के चित्त में श्रीराधिका की अपूर्व कृपा से सदा सदा के लिये प्रकाशित होवे ।
श्रीकृष्णकर्णामृत श्लोक 5
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