खंडता से अखंडता
बहुत विचित्र सा विषय है जो लिखने का कहने का मन बार बार हो रहा है । संसार और इसमें उपलब्ध विभिन्न अनुभूतियों के संदर्भ में । हम जीव (मनुष्य)कितने संकीर्ण कितने सीमित हैं । प्रत्येक अपने अपने देह और उसमें तथा उससे प्राप्त भोगो को ही मात्र जी पा रहे हैं । भोगों से तात्पर्य यहाँ पदार्थ भोगने से नहीं वरन समस्त प्राप्त , उपलब्ध अनुभूतियों अनुभवों से है । यह प्रश्न हो सकता है कि इन्हें भोग क्यों कहा ! तो जीव को जो भी अनुभव प्राप्त होता है वह मात्र भोगने से ही संभव है । भोगना अर्थात ग्रहण करना । किसी दृश्य का अनुभव भी तभी संभव हो पाता है जब उसमें निहित रस को हमारी इंद्रीय (नेत्र) ग्रहण कर भीतर ले जाती है । फिर उस ग्राह्य तत्व से मन के संयोग होने पर उसका भोग या कहिये ग्रहण या कहिये आस्वादन संभव होता है । रस का भोक्ता मन होता है , इंद्रियाँ नहीं । वे केवल मन को रसभोग कराने की यंत्र हैं जिन्हें मन निरंतर अपने सुख के लिये प्रेरित करता रहता है । समस्त इंद्रियाँ निरंतर मन को भोग कराने में ही पृवत्त हैं ।तो यहाँ बात यह कहनी है कि मात्र सुख का ही भोग नही किया जाता वरन जीव नित्य निरंतर अनुभवो अनुभूतुयों को ग्रहण करता है । सृष्टि में जो कुछ भी उपलब्ध है जिसमें सुख दुख ,पीडा ,रस ,ग्यान आदि सभी समन्वित हैं । ग्यान भी बिना ग्रहण किये धारण नहीं किया जा सकता । यह एक दूसरी चर्चा हो जायेगी । यहाँ कुछ और कहना है । यह समस्त उपलब्ध स्थितियाँ वास्तव में खंडित नहीं हैं । कहने का तात्पर्य कि एक अखंड समष्टि सर्वत्र व्याप्त है जिसमें से ,समस्त जीव सत्ता अपने अपने कर्मानुसार सुख दुख पीडा आनन्द आदि ग्रहण करती है । जैसे ये अनन्त विभु आकाश , यह कहीं खंडित नहीं सर्वत्र संपूर्ण अखंड व्यापक है परंतु प्रत्येक दृष्टि निज निज सामर्थ्य से इस अखंड के किसी नन्हें से खंडित स्वरूप का उपभोग कर पाती है । जैसे सूर्य प्रकाश समान व्याप्त परंतु सभी को प्राप्त भिन्न भिन्न । मेरी पीडा मेरा सुख तेरी पीडा तेरा सुख ! तत्वतः इनमें कहीं कोई भेद नहीं है खंडता नहीं है। जो मेरी अनुभूति है वही अन्यों की भी । किसी भोग्य पदार्थ को भोगने से जो आनंद बिंदु मुझे प्राप्त होता है वही अन्य को भी । परंतु ना हम पर पीडा को स्वीकारना चाहते हैं ना पर सुख को । यहाँ यही भेद की सत्ता माया का स्वरूप है । अखंडता में खंडता का आभास ही माया है । मानस में स्वयं श्रीप्रभु कह रहे हैं अनुज से "मैं अौर मेरे तेरे का भ्रम ही माया है "। ग्यान हमें इसी भेदाभास से परे ले जाता है । तब उस अवस्था को प्राप्त संत अनुभव करते हैं कि समष्टि की श्वास प्रवाह और उनके श्वासप्रवाह की एकता को । वे सर्वरूप हो ही श्वास लेते हैं । सर्वरूप हो ही चेतना की अनुभूति करते हैं । जैसे मैं श्वास लूं और मेरे साथ समस्त चराचर श्वास ले । यही ब्रह्म का अखंड स्वरूप भी है । यही श्रीभगवान का विश्व रूप । यह प्रसंग तो स्मरण किया ही जाता है जब दुर्वासा ऋषि के आगमन पर भोजन व्यवस्था न हो पाने पर श्रीकृष्ण ने अन्न के एक दाने को उदरभूत कर समस्त चराचर को तृप्त कर दिया था । हम सभी चेतना के अति निम्न स्तर पर अवस्थित हैं । यहाँ मात्र संकीर्णता ही अनुभव हमें । साधना तथा भगवद्कृपा से जैसे जैसे हम ऊपर उठते जाते हैं वैसे वैसे यह रहस्य उजागर होता जाता है कि खंडता कहीं है ही नहीं । जिस प्रकार धरती से ऊपर जाने पर छोटी छोटी दीवारे दिखाई देना बंद हो जाती हैं ।और यदि अंतरिक्श से पृथ्वी को निहारा जाये तो मात्र एक गोलाकार पिंड दिखाई देता है । यहाँ के कोई भेद नदी सागर पर्वत आदि दृृष्टि में आते ही नहीं । सभी अस्तित्व विहीन हो जाते हैं उस ऊँचाई से । इसी प्रकार मैं मेरे तू तेरे का समस्त भ्रमभेद अस्तित्व खो देता है और एक समग्रता की अनुभूति शेष रह जाती है । मेरे दुख या तेरे दुख में कोई अंतर नहीं वहाँ ।किन्हीं के लिये यह चर्चा व्यर्थ या अनुपयोगी प्रतीत हो सकती है परंतु इस स्थिती को यदि तनिक भी हृदयंगम कर पावें तो हमारी और संसार की बहुत सी समस्या तथा पीडायें कम हो सकती हैं । स्वयं से ऊपर उठकर तनिक सा समष्टि में जीने का प्रयास करें तो उस अखंडता के साथ अभेदता प्राप्त करना सहज हो सके शायद ।।
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