आनन्द
आनन्द ....सृष्टि का आधार तत्व । जीव सदा आनन्द का पिपासु है । जीव भगवान की बहिरंग शक्ति , जो सदा आनन्द बिंदु को पाने के लिये चेतन है । और आनन्द स्वरूप भगवान जो नित्य आनन्द दान के लिये व्यग्र । यह व्यग्रता मूल में उनकी स्वरूपभूता आह्लादिनी का सार है । आह्लादिनी .....यही आनन्द का सार सर्वस्व ! यह सदा आनन्द का दान करने को आकुल । श्रीकृष्ण की समस्त जीव रूपी बहिर्सत्ता आनन्द के अति नन्हें से कण को पाने के लिये पीने के लिये नित्य गतिमान है । और वहीं उनकी स्व स्वरूपिणी जो उनके आनन्द स्वरूप का मूल है , उन्हें नित्य आनन्द पिवाने हेतु महाआकुल । यही घनीभूत आकुलता श्रीप्रिया जु हैं । उनके द्वारा प्रियतम श्यामसुंदर के प्रदत्त सुख वस्तु , पदार्थ जन्य भोग सुख नहीं वरन विशुद्ध आनन्द का अखंड रसपान है । आनन्द का आनन्द ,आह्लाद कहा जाता है । प्रियतम को आनन्द प्रदान करने की चरम आकुलता चरम उत्कंठा ही श्रीनिकुंजेश्वरी का निकुंजविलास है । आनन्द देना है ,ऐसा चिंतन नहीं है वरन आनन्द देना स्व भाव है स्वरूप है । जिस प्रकार काम और भोग एक ही तत्व के दो नाम हैं । ग्राह्यता ही काम है भोग है । आनन्द बिंदु को ग्रहण करने की जीव वृत्ति के बिना जीव तत्व की कल्पना नही । वैसे ही आनन्द दान की सहज वृत्ति ही प्रेम है । यही वृत्ति श्रीराधिका जु हैं । हम जीव श्रीकृष्ण को वस्तु पदार्थ आदि निवेदित करते हैं कर सकते हैं परंतु आनन्द नहीं दे सकते । क्यो ....क्योकीं यह आनन्द तत्व हमारा स्वत्व है ही नहीं । यह स्वत्व है श्रीप्यारी जु का । जीव केवल ग्रहण कर सकता है , दान नहीं कर सकता आनन्द का । परंतु उन्हीं आहलादिनी की स्वभावस्वरूप कृपा से सिंचित होकर वह श्रीश्यामसुंदर के रसोपभोग में सेवा हो सकता है ।आनन्द और उनके आह्लाद् के पारस्परिक विलास में सहभागी , सहयोगी और अनन्ततः सेवा हो स्थित हो जाना ही जीव का मूल अभिष्ट । हम आनन्द के सीकर के भी सीकर को पाने के लिये अनन्त जन्मों से भोगमय यात्रायें कर रहे हैं और परम व्याकुल रहते इसे पाने को । परंतु हमारी व्याकुलता से अनन्त सहस्त्रों गुणित व्याकुलता इस आनन्द का निज स्वभाव है । स्वभाव कैसा ! आत्मदान का ..... हम मात्र अपनी पिपासा को ही जानते हैं वह भी लेशमात्र ही । और यह आनन्द की पिपासा भी विशुद्ध रूप में केवल कुछ कल्याण पथ के पथिको को ही अनुभव हो पाती है , शेष तो केवल व्यथित रहते इस प्यास से परंतु न इसके कारण को जानते न समाधान को । जितना जीव का परिमाप है उतना ही उसकी पिपासा की सीमा । परंतु उन आनन्दघन श्रीकृष्ण की महातृषा का कोई पारावार ही नहीं जो उनमें आनन्द दान के निहित है । जीव केवल भोग अर्थात् आनन्द कण को पीने की पिपासा से अवगत है । परंतु प्रेम पिपासा अर्थात् आनन्द दान की तृषा अनन्त कोटि अधिक होती है यदि वह किसी जीव के हृदय कमल पर श्रीप्रिया की अपार कृपा से प्रकट हो जाये । वह प्रेम तृषा जीव के समस्त स्वरूप को विलीन कर लेती है , हर लेती है । बिंदु में सिंधु हो जाने की महान तडप पल पल प्राणों को मथती रहती है कि और ...और ....और । जब जीव की यह दशा संभव तो इन आह्लादिनी से नित्य सिक्त श्रीश्यामसुंदर की दशा कौन कहे । और जब श्रीप्रियापरिरम्भित श्रीश्यामसुंदर की ऐसी स्थिती तो स्वयं श्रीप्रिया का तो कहना ही क्या ......उनकी प्रेमदशा तो स्वयं प्यारे जु को पूर्णरूप हृदयंगम नहीं हो पाती ।श्रीप्यारी की इसी आत्मदान स्वरूप की अनन्त वृत्तियाँ निकुंज की अनन्त सेवायें हैं । आनन्द का सार यही प्रेम सार स्वरूपिणी श्रीनिकुंजेश्वरी हैं ।प्रत्येक जीव आनन्द बिंदु को अपनी ओर खींचने को प्रयत्नशील है और आनन्द स्वयं को पूर्णरूप देने को व्यग्र ........और इसी आनन्द का सार तत्व इसे आनन्द अर्थात् विशुद्ध रस पिलाने को नित्य तृषित ......
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