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श्रीकृष्ण कर्णामृत श्लोक 6

रसधामा श्रीश्यामा का रोम रोम अनन्त रस सिंधुओं के समान है , जिनमें नित्य एक इंदीवरसुदंर नीलकमल खिला रहता है । श्रीप्यारी के मधुर प्रेमरस सार रूपी, नवनीत सरोवर जैसे ,हृदय सरोवर में खिलो यह प्रफुल्लित कमल कौन है .......हां यही तो श्रीवृंदावन के नित नवलकिशोर हैं जो श्री श्यामा के भाव नवनीत सरोवर में सदा मुस्कुराते रह्वे हैं । प्राणों के प्राण सार, प्यारे श्यामसुंदर का मुखमंडल . ....अहा! अपूर्व शोभा बिखेरता हुआ । इन्द्रनीलमणि का इन्दीवर सुंदर यह प्यारो मुख कमल । समस्त सौंदर्यों को समेट,  हुये खिले हुये कमल सा .....कौनसी उपमा दी जावे इन मनहर के मनोहर सौंदर्य के लिये ......उस चिन्मय सौंदर्य की झिलमिलाती आभा को नयनों से नहीं हिय से अनुभव करनो होगो । तनिक नेत्र मूंद हिय में उतार लेवें उस सुकुमार छवि को ..........सुकुमार नील वदन और खिला मुखमंडल आहा  .......लागे मानो नील नवनीत को सरोवर में नील कमल पूर्ण विकसित हो रह्यो है  .....पर जे कोई साधारण कमल ना हैं , एसो नीलकमल जिसमें से कोटि कोटि चंद्रों की ज्योत्सना छिटक रही .....और जे ज्योत्सना भी मात्र ज्योत्सना तो नहीं ......जैसे शहद से भरी ये उज्जवल ज्योत्सना । नयनों को , प्रानन को शहद से भरती यह रसमयी रूप किरणें .....रोम रोम को छूकर सुशीतल करतीं .........हिय प्रान को मधुर सुगंध से महकाती ये नीलकमल की नीलआभा .......और प्यारे के अर्धमुदित नयन आहा ..........जैसे दो अर्धखिलित कमल अपने ही रस मकरंद का पान करने में चूर हों ।अपने प्राणों में समाये हुये,  श्री प्यारी जू के रस को पीते नहीं अघा रहे ये नीलसुंदर ......और इसी महारससिंधु में डूबते हुये जे दो कमल नयन मानों अपनी पंखुरियों को समेट उस माधवी के मधु में डूबने को अकुला रहे हों । ओह कैसी अद्भुत रीती है कि ज्यों ज्यों ये नीलकमल अपनी मधुता में , अपनी रसदा में डूबतो जावे है त्यों त्यों इसका माधुर्य मुरली निनाद हो समस्त चराचर को मोहित किये जा रह्यो है । इन नील नलिन का हृदय मकरंद ही वेणुरव हो , समस्त चेतनाओं को सहज खींच लिये जा रहा है इसके पद्म पराग की ओर .......जैसे कमल की मधुर सुवास चारो ओर व्याप्त होकर मधुरता का संचार करती है , वैसे ही प्यारे श्यामकमल के हृदय से प्रस्फुटित यह वेणु मकरंद , श्रीवृंदावन के कण कण को मधुरता से सींच रह्यो है । हिय को स्पर्श करते ही हिय प्यारो को करि लेवे है यह श्रीवेणु मकरंद ,और प्रति हिय भ्रमर हो खिंचो चलो जावे अपने प्रान सौं श्रीब्रजराज कुमार पे न्यौंछावर होने ।  जा ने नेक सों चाख लियो जे वेणु मकरंद , तो कबहुं कछु और रस चाह्वे ही नाय । एसो है यह श्रीकृष्ण कमल के मकरंद रूपी मकरंद को माधुर्य । कमल का सौंदर्य तो सीमित होवे , पर इन नील कमल का पावन सौंदर्य तो समस्त वृंदावन को ही श्रृंगारित कर रह्यो है । प्यारे श्यामसुंदर के दो सुंदर गंडस्थल ,दर्पण के समान झिलमिला रहे हैं । दर्पन प्रतिबिंब दर्सावे है न .....ये सुंदर नीलमणि दर्पन समस्त गोप वधुओं के रस भावों को ही प्रतिभासित कर रहे  हैं । इन सुंदर दर्पनों में ,गोपवधुओं के भाव भी कमलों के समान होकर , मणि में शोभा पा रह्यों हैं जैसे इंद्रनीलमणि दर्पनों में अनन्त कमलों के प्रतिबिंब झिलमिला रह्यो । श्रीकिशोरी के हृदय सरोवर में नित्य खिलित यह नीलकमल मेरे चित्त के सरोवर में भी सदा अपनी आभा अपनी सुगंध छिटकाता रहे । मैं भी नित्य निरंतर इन नीलसुंदर बृजेंद्रनन्दन की मुखमाधुरी को निरख निरख सर्वस्व इन्हीं पर वारतो रहूं । श्रीब्रजराजकुंवर की मधुर मुस्कान सदा मेरे प्रानों को मधुर करती रहे ।।

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