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श्रीकृष्णकर्णामृत श्लोक 7

तनिक सो भिगोवें हम अपने हिय को श्रीब्रजराज के मधुर रूप आस्वादन में । नेक सो पावन करें कर्नपुटों को इस रस का पान कर और नेक सों कृतार्थ करेंअपनी रसना को ,  उस उज्जवल रूप माधुरी को गाकर ।। कैसे हैं हमारे प्यारे और श्रीकिशोरी जू के प्रानन की सरस मूर्ति श्रीवल्लभ ......अरे जे तो श्री प्यारी के हृदय भावों की बनी एक महामधुर मूर्ति है । श्रीमहाभाविनी के हृदय रस ही तो साकार भयो है नीलमणि हो । श्री रसेश्वरी के महाभावों की परम सुकोमलता ही तो इन ललित किशोर की कमनीयता है । नेहवल्लरी श्रीश्यामा के हृदय की तरलता ही स्निग्धता भयी है इन छविधाम की । खिले कमल को लजाती इनकी मुस्कान तो डूब कर निकली है उस मधुता की राशि में से .......श्रीवदन को एक एक अंग और जा पे सजो श्रृंगार प्यारी के एक एक भाव की मरोर है । नख ते शिख सों रस ही रस सरस रह्यो आहा !.........कहते कहते ही हिय मीठो होनो लागो और जेई मिठास लागे मुख माहीं भरि रह्यो .........जैसे शहद की बात कहते कहते वा की मिठास स्मृति को मीठो करि देवे है .......पर ना जी , वो तो जागतिक पदार्थ और उसको गुण सीमित है , सो कैसे मीठो करे बिना जिह्वा पे धराये । पर हमारो कुंवर कान्ह तो नाम ते ही रस ही रस पिवाय देवे हैं ,तो रूप माधुरी की कहा कही जावे । लागे जैसे शहद की मूरत .......नवनीत सार ते भी कोमल ....और कर्पूर ते भी सुसीतल .....आह ! ऐसो घनो मीठो कि मुख में रस ही रस घुल रह्यो जैसे । अरे हम तो मायिक देहधारी हैं न तो मिठास को अनुभव रसना ते ही होय सके पर उन गोपांगनाओं के सौभाग्य की क्या कही जावे जो अपने रोम रोम से इस मधुता का रसपान करें हैं । त्रिभुवन को मधुर करता यह माधुर्य ......श्रीकृष्णमाधुर्य , श्रीकृष्णा का माधुर्य ,श्यामा की प्रेम माधुरी है । कैसे बखानो जावे रसमूर्ति की रसरूपता को ....श्रीअंग तो मधुर हैं ही , जिन फूलन को धारन कर राखें है , वे फूल वे पल्लव वे कलियाँ भी रस में डूबी भयी रस ही पिवा रहीं ।ये रस शहद से भी कोटि गुना मीठो है जी पर ,ह्वै अति उज्जवल .......तृप्ति नाय देवे जे मधु , वरन नित और प्यासो करि राखे । श्रीश्यामा के प्रेम रस भावों की यह विलक्शन प्रतिमा स्वयं भी तृषित हो नित्य पान करती श्रीप्रिया के गाढ हृदय मकरंद का और वेणु रव सुधा रूप वितरन करती उसी हियपराग का । जिस प्रकार पूर्णिमा का चंद्र ज्योत्सना से परिपूरित होवे है ,वैसे ही श्रीकृष्णचंद्र का मुखचंद्र वेणु रस सुधा से आप्लावित हो रह्यो है ।  रूपमाधुरी वेणुमाधुरी संग मिलकर शत सह्त्र गुनित हो कण कण को माधुर्य सिंधु में डुबा रही है । वृंदावन को समस्त वासी भीज रहे इसी सुधा वृष्टि में नित्य । क्या कहा जावे इसे , श्रीश्याम रूप माधुरी ......या श्रीश्यामा हिय माधुरी । श्रीमाधव की यही रसमाधुरी कन मात्र ही सही मेरी रसना को स्व करि लेवे ......इस जिह्वा को अंगीकार करि लेवे मनहर की मधुर मनोहारी माधुरी ........

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