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प्रेम

प्रेम !
ह्दय की धरा पर अवतरित होता रसमय भावस्वरूप प्रेम । हृदय की असीम अनन्त गहराइयों में विकसित होता कि उसे छूने के लिये भीतर और भीतर उतरना होता । इतना सूक्ष्म कि वाणी की सामर्थ्य ही नहीं कि स्पर्श भी कर सके । कभी अधरों पर हास्य सा खिलता तो कभी नयनों से मुक्ता बन झरता कभी इतना उमड़ता कि समेटे न सिमटता । कितना अवश कर देता । समस्त बांधों को तोड़ समस्त अस्तित्व को स्वयं में विलीन करने को आतुर सा । कभी तुम्हारे नयनों से झरती प्रेममयी फुहारों का रूप ले मेरे अन्तर को निमज्जित करता हुआ हृदय में उतरता । वहाँ गहराकर अपनी खुशबू बिखेर मेरे लबों पर खिल जाता । मेरे लबों से तुम्हारे रतनारे नयन फिर इसे चुरा लेते । उन प्रेमपगे रसीले नेत्रों से जीवन पीयूष को मुरली से बरसाते सुधा के आकर से तुम्हारे वंशीधरों पर छलकने लगता यही प्रेमोन्माद शतसह्त्र गुणित होकर । मंद मंद मुस्काता तुम्हारा वह खिले कमल सा मुखमंडल मेरे प्राणों को सुवासित करता नित ही प्रियतम । ओ कमललोचन ! तुम बाहर मुस्काते हो या मेरे मन में ।मन के आकाश में तुम्हारी मधुर मुस्कनिया चंद्रिका बन खिल जाती है शुभ्र ज्योत्सना बन बिखर जाती है ।यहाँ तुम्हारी प्रीती की सुगंध महकती है या तुम्हारे मुखारविन्द पर अर्थमयी स्मित ! क्या कोई जादू है तुममें रसनागर ........
--तुम्हारी तुम तक तृषा ... कही किसी सूखते तृषित घट में । केवल तुम्हारे दृश्य भर ।

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