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रसिया को नार बनाओ री रसिया को

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रसिया को नार बनाओ री रसिया को ............

निकुंज भवन माँही आज एक अति सरस लीला रच्यो ह्वै । यूँ तो निकुंज कू स्वरूप ही अति गाढ महान युगलरस है , पर यहाँ होती प्रत्येक केलि नित नूतन रस की सम्पति होवे , जो प्रति पल पहले सों अधिक रसउपजावे और वितरित करे ।
   आज निकुंजेश्वरी के रसवर्धन हित सखियन ने विचित्र लीला सजाई ह्वै ..........निकुंज माँही पधारे रसिया नागर श्रीनवलकिशोर कू नारि बनानो ह्वै ........श्रीललिता जू ने भोरी किशोरी के समझाय , फूलन को सेज पे बैठाय दीन्हो .........मंद मंद मुस्क्याय लाडिली निरख रहीं निज प्राननिधि की ओर ...........हिय कमिलिनी की जे सुमधुर मुस्क्यान ही जीवनरस  इन प्रानसुखराशि की .......अहा !.........बस स्वामिन यूँ ही मुस्काती रहो ........यूँ ही तुम्हारे अधर दलो से झरतो रस मोरे रोम रोम कू रस माहीं पागे रह्वै ..........सुंदर घाघरो पहनाय दीन्ही एक सखी .........ज्यूँ रोम रोम रस सों नहाय गयो ललित किसोर कू .........और किसोरी ........ना कहते ही नाय बन रह्यो कि कौन सुधा उमग रही महाभावसिंधु माँहीं !..........ज्यूँ ज्यूँ सखी की कोमल करावलियाँ रसिकशेखर के कोमल गात पर बसन धराय रहीं ह्वै , त्यूँ त्यूँ जे रस स्वामिनी मुदित होय खिलती जाय  रहीं ........उधर कंचुकी के बंद कसे जाय रहे और इधर लागे ह्वै मनहुँ रस तटबंध तोड बह जाने कू आकुल होय रह्यो .........नयनों में कज्जल अधरन पे लालिमा सजाती हुयी सखियाँ और रस में डूबती रसकुमुदनि .........याही रसकुमुदनी के रस में डूबतो जे रसिक मधुकर और इन दोऊ के रस सों रसीली होती सखिगन ........कैसो विचित्र रस कू योग ह्वै जे , कैसो रस संयोग ह्वै जे !..........कैसो ताना बाना ह्वै कि तीनो के प्रान तंतु यूँ आपस में गुंथे ह्वै की तीनो मिलकर ही पूरो होवे ह्वै। प्यारी के रसविलास हित , सुखार्थ हित प्यारे को जे नवल श्रृंगार और प्यारे को मिल रहे रसास्वादन से कुमुदनी को रस और और और बढतो ही जाय रह्यो ...........प्यारे के बदन कमल पे थिरकती सखियन की प्रेमिल करावलियाँ , प्यारे कू जे अलबेलो श्रृंगार किस प्रकार प्यारी जू को रसनिमग्न किये जा रह्यो ह्वै और प्यारी कू मुखचंद्र को निरखतो जे रसिक चकोर कैसे उस रससिंधु की लहरों पे झूल रह्यो ह्वै ........और इन दोऊन के रस को रसमयी विधान रचती जे अलबेली सखियाँ जो इनके सुखविलास कू उपकरन बनी ..........इन्हीं के रसित मनो की रूपछटायें हो खेल रहीं ह्वै अरु खिला रही हैं नित नवल केलियाँ ............कबहुँ प्यारी की मधुर छुअन प्यारे सों होती हुयी उतरने लगती ह्वै इन सुधामालिकाओं में , तो कबहुँ प्यारे कू सीतल संस्पर्श प्यारी सो होता हुआ प्रकट होने लागे इन रस कलिकाओं में ............और कबहुँ इन्हीं के भाव रूप में परस्पर सों खेलन लागे जे दोऊ रसमगे रसपगे .........कबहुँ कुशल भये कबहुँ भोरे ..........

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