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कीजै रंगमहल की दासी ....

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श्रीराधा

कीजै रंगमहल की दासी .........

एक निवेदन ....एक लालसा भावना कामना विनती ......जो चाहें समुझ ल्यो स्वामिने ...... ..रसिकलालजू के हियवासित तोरे चारुचरनन माँही जे अर्चना ह्वै .........तनिक कृपा कू कोर जो करहुँ श्रीश्यामा , तो जे पियासे नयन युगल सुख राशि पायें धनी होय जावें ......क्या चाह्वै जे नयन जे हिय भामिने ! प्राणप्रिय श्रीयुगल को निरखन ........ना ! जे नयन तो व्याकुल ह्वै , मधुर जोरी के परस्पर दरसनों से उच्छलित होते रससिंधु की उत्ताल तरंगों की विलास शोभा को निहारन हित .........नयनों माँही नयन दिये , परस्पर उलझी स्यामलगौर रसजोरी की रसीली पुलकनों को सहेजन की प्यास ही जीवनरस होई जीवित राखे ह्वै ...........प्यारे सों मिलन उत्कंठा लिये , उठते गिरते तव अतिसुकोमल पदकमलन सों झरते भाव मकरंद कू , हिय संपुट माँही संचित करि लेने कू ही स्पंदित हो रह्यो जे हिय ........परस्पर सानिध्य सों ,पलकन ही झपकनो भूलि चुके युगलवर कू ,कोई केलि तरंग होई पुनि पुनि तरंगायमान करने को चाह ही आकुल करि राखे ह्वै श्यामाजू ..........लाललाडिली कू मिलनानंद ही प्रानरस होय बरसत ह्वै जहाँ दिन रैन चहुँओर वही.......बस वही प्रेमस्थलि इन प्रानन की परम लालसा ह्वै .......रस में डूबे दोऊ फूलन के रोम रोम सों झरते रसकनों को संजोय , वा रसमुक्ताओं की माला गूंथ , नित वा कू ही नवल श्रृंगार सजाने की चटपटि हिय को हुलसाय रह्वै प्यारीजू ..........प्यारी कू सुख, जो प्यारे कू हिय स्पंदन होवे अरु प्यारे कू सुख जो प्रिया हिय कू स्पंदित् राखे , उन मधुर स्पंदनों कू ही जीने की लालसा मोहे ललचावे  ............प्यारी तोरे मधुरस्पर्श पुलक सों प्रियतम् के रोम रोम में घुलती रसधारा पुनि पुनि अनन्त गुणित होय ,तोहे ही रससिक्त करती हुयी, श्रीरंगमहल की दासिन कू रस माँही छाके राखे ह्वै , वहीं .....बस वहीं इस भाव कोपल कू सेवा करि ल्यो .......पर क्या मैं होउंगी वहाँ !.........होकर भी न होउंगी स्वामिने ....होगी वहाँ केवल तुमसे से ही उदित,तुममें ही विलीन होय पुनि पुनि उदित होती ,  तव सुख लालसा .......युगल को नित्य एक्य हुये , अखंड अनवरत रससिंधु में अवगाहित हुये निरखने की , सेवा होने की असमौर्ध्व पिपासा............

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