रसिक अनन्यनि को पथ बाँको ......
वेद को पथ ,शास्त्रों को पथ , लोकाचार को पथ ............इस संसार रूपी अश्वथ् की अनन्तानन्त विस्तार वाली शाखाओं व उपशाखाओं से मुक्त कर देने का प्रलोभन देते ,परंतु पुनः पुनः उन्हीं में उलझाने वाले ना जाने कितने ही पथ हम सब जीवों को युगों से लुभा रहे ह्वै । जप करि लेयो , तप करि लेयो ......ना ना रे संयम नियम करि लेयो ........अहिंसा को मार्ग पे चल्यो रे .......कि सत्य की खोज में निकलो ......... अरे नहीं नहीं ईश्वर सत्य जगत् मिथ्या ही महान प्रकाशपथ है .......और भी ना जाने कैसे कैसे कितने कितने पथ जीव मति को भरमाय रहे । पर हम तो बात करें जी प्रेमपथ की ........रसिकों के रसित बाँकें पथ की ........रसराज के पथ की । कोई कठोर नियमों में स्वयं को तपा रहा ह्वै तो कोई ग्यान के नीरस शुष्क फल की अभिलाषा में ही जीवन गंवा रहा ह्वै । पर यह रसिकन को पथ ह्वै जी ......रस से भरा .....रस में डूबा ......रस को उछालता ...... नित्य निरंतर अविराम , रस निधि को संभालता सहेजता ........रस देवे और रस पावे । बडो ही बांको ह्वै जे रस पथ ......बडो ही बांको .......अरु होय भी क्यों न !........प्रेम की उल्टी रीत जो होवे ह्वै । सबरे मार्ग अपनो ही कल्याण अपनो ही आनन्द अपनो ही मोक्षकामना सों भरे ह्वै और संपूर्ण प्रणियों को उनके ही निजी उत्थान को मार्ग प्रशस्त जो करे ह्वै .......इन सब स्व कल्याणकारी मार्गों की राह से छूटा कोई एक जीव ही पग धरे ह्वै इस परम उज्जवलतम् रसपथ पे .........हाँ परम उज्जवलतम् मात्र यही एक पथ है , जो काम की , स्वार्थ की गंधमात्र से भी अछूता ह्वै । सब मार्ग कल्याण कू आश्वासन देय रहे , पर हमारो रसपथ ऐसो बाँको ह्वै , जो पहले ही उद्घोषणा करि देवे ह्वै कि जाऊ को निज कल्याण की बीमारी चिपटी हो ,वह दूर ही रहवे या ते । जे मार्ग तो स्व की पूर्णतम् विस्मृति को , आहूति को पथ ह्वै .....या कहनो चाहिये कि वास्तविक स्व की लब्धि प्राप्त होवे यहाँ । मेरो सुख , मेरो कल्याण , मेरो मुक्ति , मेरो आनन्द ..........वा को तो सपनेहुँ नाहीं झलक दिखावे या पथ । जे पथ तो है उन बाँके नवलकिशोर रसिक लाडलो कू , वा के रस कू ......वा के सुख कू , वा के ही आनन्द को । जाहीं को जनम जनम की चिपटी आत्मकल्यान की बीमारी दूर होई जावे और विकट लालसा जगि जावे दोऊ प्रान निधिन के सुख की , वे ही चलि सकें इस बाँके पथ पे । जे बीमारी किसी जप तप नियम सों नाय छुटि सकें , जा को तो एक मात्र औषध ह्वै रसिकन की चरन धूरि .........ब्रज की रज कू चाटि चाटि , रसिकन की चरनधूरि माहीं लोटि लोटि ही छूटे जे विषम रोग । श्रीश्यामाश्याम के सुखसागर में निमज्जित रसिकन की झूठन पाय पाय ही , हिय अनुराग रंजित होय सके इन अलबेले प्रानलाडलों के ताईं ..........बाँके कू बाँको पथ ......यहाँ तो जे सुध भी नाय रहवे कि हम हैं भी या नहीं ......बस दिन रैन अहिर्निश एकहूँ लगन एकहूँ लालसा ऐकहूँ जीवन प्रान संजीवनी , कि लाललाडिली को सुख कैसे हो .......जे प्रानकिसोर सुख सागर में लहराते रहवें ......अरी सखी ! कहीं हमारो इन प्रान फूलन के रस माहीं कोऊ कमी तो नाय हो रही ......देख न हिय माहीं नित जाने कैसी प्यास लगी रह्वे कि या दोऊ को किस विध सुखी करुँ .............हाँ री बडो ही कोमल सों फूल ह्वैं जे दोऊ रंगीले रसिक हमारो , कि जान्यो ही नाय कि , इनकू रस काहे में ह्वै .......या को पूरो ध्यान हमें ही रखनो परो ह्वै री .....जे दोऊ तो भोरे बालक हैं बस ........तो ऐसे बाँकों का बाँका रसपथ ह्वै जे , जो अपने सर्वस्व कू , हित सखियन को सौंप इन्हीं की हितगोद में इन्हीं की रुचि सौं खेल रहे ह्वै । जो इन्हें संभालनो चाह्वे , इन्हें सहेज , इन पे वारि वारि जावे , स्व से मुक्त बस इन्हीं को मात्र स्व अनुभव करि पावे वही आवे इस ओर ...........रस को बाँको पथ है जी ! रस का स्वरूप ह्रदयंगम होने पर ही रस प्रवाह होवेगो ......रस वह ह्वै जो प्यारेप्यारी के सुखसिंधु से प्रवाहित होवे, उन्हीं के लिये ,उनसे ही उनमें ही .........हिय मन प्रान चेतना आत्मा जब सब ही कछु ये दोऊ बाँके भये तो प्रत्येक स्पंदन वाही के लिये तो ...............और जे दोऊ रसभीने ऐसे , कि जिनकी गोद में जे नित खेलें , वाही के सुख ते सखी होवें .............बाँको का यही प्रेम बाँको कहा जावे ह्वै और यही पथ "रसिक अनन्यनि को पथ बाँको "..............
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