निरा ह्रदय ..........
प्रेम की धरा है ह्रदय ......मात्र ह्रदय ! चलना है इस ओर ......पहुँचना है श्रीराधामाधव के दिव्य निकुंजों में .........होना है कोई सेवा ......तो होना होगा ह्रदय .....केवल मात्र ह्रदय । मन बुद्धि अहंकार इस पथ के पथिक हैं ही नहीं । पर जीव चेतना तो इन्हीं के समुच्चय का नाम है न ......तो आइये कुंजन तक , रसिकाचार्यगण कह चुके हैं कि जीव का प्रवेश केवल कुंजन तक ही है । यहाँ से आगे चलना है तो मन बुद्धि अहंकार की सत्ता को विलीन होना होगा ह्रदय में .......केवल ह्रदय को ही प्रवेश वहाँ .......कैसे ये कहा जा रहा ...प्रेम भाव धारण कौन करता , ह्रदय ही न ! भावराज्य अर्थात हृदयकुंज । क्यों ...श्रीप्रिया की भूमि यही जो है । और निकुंजेश्वरी ....निकुंज की अधिष्ठात्री ......महाभाविनी श्रीराधिका ही तो ह्रदय क्षेत्र की अध्ष्ठात्री हैं । मन इत्यादि अधिष्ठानो को इन्हीं के अधिष्ठान अर्थात् ह्रदय में विलीन कर देने पर ही तो होगा निकुंज प्रवेश ......जब केवल प्रेम अधिष्ठात्री का अधिष्ठान ही शेष रह जाये । उसी ह्रदय पे विलसेंगीं ये महाभावसिंधु अपनी ही किसी भाव तरंग के रूप में ......पर पहले उस विलसन में बाधक अन्य आवरण तो भंग होने ही होंगें । जब केवल एकमात्र उन्हीं की धरा शेष रह जायेगी तो फिर वे जैसे चाहें , जिस रंग में चाहें , जिस तरंग के रूप में चाहें लहरावें ............तत्वतः जीव का प्रवेश कभी होता ही नहीं निकुंज में , यह उन स्वामिनी की निज विलसन है , उन्हीं का स्वत्व है और प्रवेश भी स्वयं उन्हीं का होता है पुनः पुनः नवीन नवीन अस्मिताओं को स्वत्व का दान देकर .....स्व होकर । मैं निकुंज वासी हो जाऊँ .....यह धारणा ही सत्य नहीं , क्योंकी जो निकुंज में प्रविष्ट होगी वह मैं ना होउंगी और जो है वह मैं नहीं .......मैं को अर्थात् मेरे अहं तत्व को कहाँ गति वहाँ ......वहाँ तक पहुँचने के लिये तो इस अहं तत्व को श्रीनिकुंजेश्वरी के पाद तल में विलीन होकर , उन्हीं के स्वत्व से पुनः नवीन रूप हो प्रकट होना होगा । और वे खिलतीं हैं मात्र ह्रदय सरोवर में .......मैं अमुक नामधारी देहधारी रूप से ही (अनित्य स्वरूप ) निकुंज में सेवा पद पा जाऊँ यह संभव ही नहीं । जो प्रवेश पायें हैं वे भी कहाँ प्रविष्ट हुये हैं .......बारम्बार श्रीनिकुंजेश्वरी की निज सुगंध ही तो उन्हें स्वयं में तिरोहित कर लातीं हैं निकुंजेश्वरी के ह्रदय मंडल में ........पर ह्रदय में केवल ह्रदय ही तो समा सकता न .....फिर उनका (निकुंजेश्वरी )अनन्त प्रेमस्वरूप ह्रदय ही मन बुद्धि तथा अहंकार के रूप में अन्तःकरण चतुष्टय को रच देता । ग्यान मार्ग निज अहंकार को विराट के अहंकार में विलीन कर देने का पथ है वहीं युगल प्रेम पथ , निज ह्रदय को समस्त अन्तःकरण समेटे हुये श्रीप्रिया ह्रदय में समर्पित कर देने का अति उज्जवलतम् प्रकाश पथ है । हृदय भाव स्थली है और श्रीप्रिया नित्य महाभाविनि नवीन भावमुद्रा में खिलती कूमुदिनी फुलनि । जिस प्रकार मेरी देह को निकुंज पथ प्राप्त नहीं हो सकता वैसे ही मेरे मन अहंकार इत्यादि को यह ह्रदय पथ स्पर्श नहीं हो सकता ......निकुंज के द्वार पर ही इन सभी को हिय मांहीं विलीन कर मात्र हिय होकर....निरा हिय होकर ही भीतर पग धरना होगा ........... हृदय से शेष अन्य कोई स्थिति भाव पथ पर नहीं होती है ।
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