Skip to main content

प्रियता ....

प्रियता ...........

प्रेम !..........अपने भीतर अनन्त अगाध रहस्य समेटे हुये एक रत्नाकर सा लहराता हुआ , कभी शांत कभी प्रशांत सा दीखता .......कभी भावों का ज्वार आने पर अंतर्ह्रदय की अनुभूति रूपी रत्नों को तटो पर छोड जाता । ना जाने कितने रूप इसके , ना जाने कहाँ कहाँ बिखरा हुआ सा प्रतीत होता और पता नहीं कहाँ कहाँ सिमटा रहता छिपा रहता कि कोई देख ना पावे इसे । प्रेम की ही एक अवस्था है "प्रियता " .........प्रेम नित्य तत्व है और नित्य एक ही इसका विषय । वह एक ही परम प्रेमास्पद हैं .......चाहें उनके प्रति यह अनुभव में आ जावे या ना आवें । परंतु प्रियता सर्वत्र बिखरी हुयी है । इस प्रियता का मूल भी वही प्रेम है जो उन नित्य प्रेमास्पद के प्रति एकनिष्ठ है । प्रेमास्पद में प्रेम अनुभव सरल है सुलभ भी हो सकता है , परंतु इसके आगे की स्थिती है प्रियतम के प्रेम से प्रेम और एक अवस्था और है प्रियतम के प्रेमी से प्रेम .........यहाँ सांसारिक प्रेम की कोई बात नहीं कही जा रही । यह सभी केवल पावन दिव्य और शुद्ध प्रेम का ही चिंतन है । प्रियतम से प्रेम ही गाढ होने पर उनके प्रेम से प्रेम तथा और गाढ होने पर उनके प्रेमी से प्रेम की अनिर्वचनीय अनुभूति कराने लगता है । प्रियतम की वस्तु से प्रेम तो संसार में भी(काम में ) संभव है , लेकिन प्यारा जिसे प्रेम करे उसमें सहज प्रियता का अनुभव होना दुर्लभ है । परंतु प्यारे के प्रेम से प्रेम हमारे युगल के दिव्य प्रेमराज्य का नित्य सहज स्वभाव है । और प्यारे से जो प्रेम करे उसमें प्रेम अहा !..........उसका तो कहना क्या वो तो प्यारे से भी बढकर प्रिय हो जाता है । "श्याम को जो राधा नाम सुनावे ताही बसावे हिय में मोहन अपनो भाग सुभाग मनावे । प्रेम बंध्यो संग ही संग डोले ता पर नेह जनावे , श्याम को जो राधा नाम सुनावे ।।" ऐसा होता है प्रियतम के प्रेमी के लिये प्रेम .........अपने लिये की गयी पुकार भले एक बार अनसुनी हो जावे पर अपने प्रेमास्पद के लिये ह्रदय का सच्चा प्रेम वह बंधन है जो उस प्रेमी को प्रियतम के प्रेमी के चरणों में दासत्व में भी अगाध सुख की अनुभूति कराता है । प्रियतम का प्रेमी आह !...........जनम जनम दासी हुयी जाऊँ जो प्यारे सों प्रेम करे ।यह अनुभूति बडी विचित्र है और समझनो कठिन कहनो और कठिन ..........प्रियतम में गाढ प्रेम का ही अनन्त विस्तार है यह इतनो रसमयी कि प्यारे सों प्रेम करने वाले का स्वयं के ऊपर ऐसा ॠण अनुभव होता है जिससे कभी उपरत हुआ ही नहीं जा सकता ..........जो नयन मेरे प्राणधन को प्रेमाकुल हो निहारते हैं वा पे बलिहारी जाऊँ .........प्रियतम के प्रेम में उन नेत्रों से झरे अश्रुओं को शीश धर पावन हो जाऊँ .......जन्मों जन्म उस प्रेमी को दासी होय रहुँ ........कहते बनता ही नही कि कितना रस भरा इस दासत्व में .......प्रेम और प्रियता के यह तीन रसानुभव निकुंज लीला के तीनों स्तम्भों में पूर्णरूप से विलसते रहते हैं । प्यारे के लिये प्रेम , प्यारे का प्रेम और प्यारे के लिये प्रेम से प्रेम ........श्रीयुगल दम्पति और नित्य सखियाँ तीनों ही इन तीनों रसोभाव के आश्रय भी हैं और विषय भी बस लीलानुकूल भिन्नताओं का दर्शन होता रहता है ।यही तीनों रसोभाव प्रेम का अमित विस्तार करते रहते हैं कि कहीं किसी क्षण उसमें न्यूनता की गंध भी आती ही नहीं । तीनों ही परस्पर के प्रति महान समर्पण और दासत्व को जीते हैं । रसदम्पति परस्पर के प्रति किस प्रेमानुभूति में नित्य निमग्न हैं उसकी तो लेशमात्र भी अभिव्यक्ति संभव नहीं , परंतु ये दोनों , सखियों के प्रति प्रेमाधीनता की भी चरम परिसीमा हैं । इनका , प्यारी सखियों के प्रति समर्पण ऐसा गहन रससिंधु है कि दोनों उनके खिलौना हुये उन्हीं के प्रेमिल करों में किलकते रहते हैं .........तत्वतः प्रियतम के प्रेमी से प्रियता है क्या !.. .....प्रियतम के प्रेमी से प्रेम है प्रेमास्पद के लिये प्रेम की दिव्य रसानुभूती ........सरल शब्दों में कही जावे तो प्रेमी प्रियतम को प्रेम कर सकता है , परंतु स्वयं उस प्रेमामृत का रसास्वादन नहीं कर पाता , तो वह प्रियतम के अन्य प्रेमी में उसी प्रेम का अनुभव कर उस दिव्य सुधा का निरंतर आस्वादन कर पाता है या यूँ कहना चाहिये कि यह स्वतः होता है कि अपने प्यारे के लिये प्रेम का अनुपम रसास्वादन इस रूप में स्वतः होता है । प्रेमी द्वितीय ह्रदय में अपने ही प्रेमस्वरूप का अर्थात् स्वयं का ही रसास्वादन करता है ।इसे एक उदाहरण से समझ पाना सरल होगा ..... एक स्थिती है स्वयं मिश्री हो जाना तथा एक है मिश्री का स्वाद लेना । दूसरी अवस्था वही है , प्रेमी इसी प्रेम सुधा का आस्वादन द्वितीय ह्रदय के माध्यम से कर पाता है और इससे भी गहन कहा जाये तो श्रीश्यामसुंदर अपने इसी अपरिमित अगाध अनन्त प्रेम रस स्वरूप के नित्य आधीन हैं । वे स्वयं प्रेमस्वरूप हैं परंतु अपने इस अद्वितीय प्रेम स्वरूप का रसास्वादन वे स्वयं नहीं कर सकते । उनके लिये प्रेम का रस अर्थात् प्रेमरस अनिर्वचनीय है जो उन्हें नित्य श्रीकिशोरी का चरणानुगामी किये रहता है .............प्रेम एक अद्भुत रससिंधु है , जो स्वयं अपनों नित नव रहस्यों को अनावृत करता जाता है ........जितनी इसकी महिमा गायी जाये कम ही है ..........

Comments

Popular posts from this blog

निभृत निकुंज

निभृत निकुंज , निकुंज कोई रतिकेलि के निमित्त एकांतिक परम एकांतिक गुप्त स्थान भर ही नहीं , वरन श्रीयुगल की प्रेममयी अभिन्न स्थितियों के दिव्य भाव नाम हैं । प्रियतम श्यामसु...

युगल नामरस अनुभूति (सहचरी भाव)

युगल रस अनुभूति (सहचरी भाव) सब कहते है न कि प्रियतम के रोम रोम से सदा प्रिया का और प्रिया के रोम रोम से सदा प्रियतम का नाम सुनाई पडता है ॥ परंतु सखी युगल के विग्रहों से सदैव युगल...

रस ही रस लीला भाव

रस ही रस लीला भाव नवल नागरी पिय उर भामिनी निकुंज उपवन में सखियों सहित मंद गति से धरा को पुलकित करती आ गयी हैं ॥ प्रिया के मुखकमल की शोभा लाल जू को सरसा रही है ॥ विशाल कर्णचुम्ब...