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कहाँ कहाँ से समेटुँ ..........

कहाँ कहाँ से समेटुँ ..........

प्यारे श्यामसुन्दर  !........ना जाने कितना सुना ना जाने कितना पढा है आपके दिव्य सौंदर्य राशि के बारे में ........उसे तो न निरख सकी पर प्रकृति में बिखरे आपके माधुर्य कणों को यदाकदा छूने का प्रयास करने लगती हूँ तो लगता है कि मेरी सामर्थ्य कितनी क्षुद्र है उस बिखरी हुयी आनन्दरूप की ज्योत्सना के लिये ...... कहाँ कहाँ से समेटूँ कि भर लेऊँ कुछ कणिकायें मैं भी अपने मन के आँचल में .........कहाँ नहीं हो तुम प्यारे !........प्रातः की ऊषा बेला में विदा लेती निशा और प्रफुल्लित आगमन करते दिवस का गहन आलिंगन ........ ये तुम्हारी मधु स्मृति से ही तो भरे हैं न  ! ....... प्रातः का बाल सूर्य तुम्हारे अधरो की लालिमा पाकर ही तो अरुण होता है ......शांत नील गगन .......अहो ! किसके विधुबदन की उज्जवलता चुराकर गर्व से मुस्कुराता है । तुम्हारी प्रफुल्लता की राशि इस विराट गगन को ना जाने कितने रंगो से आभामय करती है । ये विचित्र सुगंधो को साथ लेकर बहने वाली पवन ना जाने कौन कौन से जंगली पुष्पों की सुवास से अपना श्रृंगार कर झूमती रहती है .........अरे ! कहीं ये वही वन पुष्प तो नहीं जिनसे नित्य वनलीला में तुम्हारे प्यारे सखा तोहे सजावें हैं !......... मीठी मीठी मादक सुगंध मुझ तक लाती ये चंचल पवन .......जैसे ही इसे छूने को भागती हूँ , चपला तरुणी सी लजा कर उड जाती है , और संग संग भागने लगती हैं न जाने कितनी तितलियाँ .......सर सर सर सर ......इन लता द्रुमों के अनगिनत पल्लव गा रहें हैं गीत .......किसके ! अरे प्रियतम तुम्हारे ही तो , संग संग नृत्य भी कर रहे ,  कभी तीव्र कभी मद्धिम कभी अमर्यादित से हो  ........नन्हें नन्हें पादप अपने नवल पुष्पों के भार से झुके हुये संग झूम रहे हैं , किसकी मधुर चितवन को स्मरण कर ..........उन पुष्पों के नवल पराग का पान करने को आकुल ये कपटी मधुकर उनका स्पर्श करने को अधीर हुआ जाता है और उन्हीं झूमते पुष्पों के संग डोल रहा है मीठी गुनगुन .....गुनगुन .....गुनगुन ....करता ...क्या ये तुम हो प्यारे , जो धीमे से निज प्रिया के कर्णों में पुकार रहे हो श्यामा ....श्यामा ....श्यामा ..........अरे तनिक आकाश उपवन में सूर्य संग आँखमिचौनी करते इन मेघों की श्रृंखला को तो देखो .......कहीं ये तुम तो नहीं , कुंज उपवन में सखियों के संग क्रीडा करते । कहाँ कहाँ से चुरा लूँ तोहे नन्दनंदन !.........घनी अमराइयों में महकती बौरों की मीठी सुगंध से या गुच्छों में लटकते अमलतास की पीतई से ........मालती की मादकता से या रजनीगंधा की सुवास से .......गुलमोहर की बासंतिक छटा से चुराऊँ या वर्षा की प्रथम बूंद के स्पर्श से उठी माटी की सुगंध से !  कूहु ......कुहु ......कुहु ....आह !कितनो मीठो सरस रस .....जैसे मिसरी घुल रही प्रानन में .......जान गयी मैं प्यारे , ये तुम्हारा ही मधुरातीत स्वर है ......समझ रही हूँ मोहन क्या कह रहे तुम ब्रजराज ........बतिया रहे हो न मो से , कि कहीं शिकायत न करुँ कि मोरा पी मो से बतरावत नाहीं । कितनी भाषायें आती तोहे कन्हाई !........इतने पंछियों की चहचहाहट में तुम ही तो संवाद करते नित्य ........कभी पियू पियू की ध्वनि में तुम्हारी पुकार मुखरित हो जाती है , तो कभी प्रिया आगमन का आह्लाद , केयूर नृत्य की सतरंगी छटाओं में बिखरने लगता है । कितना छिपने का प्रयत्न करोगे नाथ !.......कभी   फूलन के विविध रंगो में तुम खिल जाते हो तो कभी उनके स्पर्श को अपने कोमल लावण्य भर देते हो .......... कभी कुमुद को निहारते सूर्य , तो कभी चंद्र को अपलक  चकोरते चकोर की तृषित दृष्टि में व्यक्त होने लगते हो ........कभी गहन रात्रि की गोद में अनन्त तारामालिकायें तुम्हारी नखप्रभा से जगमगाने लगती हैं , तो कभी ये सुधाकर तुम्हारे रस में भीग कर नभ के अंचल पर इठलाने लगता है । आकाशकुसुम ये चंद्र , तुम्हारी ही भाँति इस धरा को अपनी शीतल चंद्रिका के वर्षण से सिक्त कर देता है । तुम्हारी ही स्यामलता की छिटकी हुयी बूंदो से नहाये ये स्याम मेघ कितना इतराते हैं माधव !.........पर शीघ्र ही तुम्हारी करुणा को स्मरण कर नन्हें नन्हें मुक्ता बरसा कर धरा का श्रृंगार करने में पृवत्त हो जाया करते हैं । झिरमिर .........झिरमिर ..........झिरमिर ......तुम्हारे की कोमल चरणों से लिपटे नूपुर झंकृत हो रहे हैं ना !........यह झनकार ही तो सप्तस्वर के रूप में रागरगिनियों में ढल रही है ।कभी पीत तो कभी हरितिमा , कभी अरुण तो कभी .......कितने रंगो की तूलिका से रंगते अपनी प्रकृतिप्रिया को निखिलेश्वर .........कभी तुम्हारा विरह ताप ग्रीष्म बन मुखरित हो उठता है , तो कभी प्रियास्पर्श से उदित तुम्हारा कंपन शिशिर हो कंपाने लगता है ......प्यारी के नवदर्शन से हर्षित तुम्हारा उल्लास कभी बसंत हो बिखर जाता संपूर्णता को अपने उल्लास से हुलसित करते ......ये अनगिनत नील पीत स्वर्ण शुभ्र हरित अरुण रंग तुम्हारे प्रेमिल हिय के अनन्त प्रेमराग से ही तो छलके हैं । जान नहीं पाती कि तुम छिपने को अधिक व्यग्र हो या या झलक दिखाने को अधिक अधीर .........नन्हें शिशुओं की अकारण मुस्कान कभी तुम्हें अनावृत कर देती है , तो कभी बालकों की निश्छल खिलखिलाहट और किलकते अधर तुम्हारी चिलमन सरका देते हैं ........तो कभी मृदु नेत्रों से ढरकने वाले अश्रुबिंदु तुम्हारे हिय का पथ बताने लगते हैं ...........

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