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बंसरि ....

बंसरि .......

विचित्र सी अनुभूति हो रही ....संगीत की स्वर लहरी ...आहा !.....कर्णरंध्रों से सीधे अन्तर्मन में उतरती ......बंसरि का यह मधुर स्वर जैसे बाहर शांत हवा के सागर में सुर की तरंगे प्रवाहित हो रहीं , वैसे ही भीतर मन की वीणा पर तार जैसे झंकृत करती जा रही वंशी की मधुर मीठी स्वर तरंग .........बाहर से भीतर उतरता यह रव , क्या क्या प्रसुप्त को जगा रहा जैसे .......आज विद्यालय में एक सूरदास व्यक्ति आये। किसी बच्चे के अभिभावक थे संभवतः । पता नही किसके अनुरोध पर बंसरि की स्वर लहरी छेड दी उन्होनें .....वो स्वर आहा ! ....मन जैसे पंख लग गये कल्पना को ....यह साधारण सी बंसरि का स्वर खींच रहा अपनी ओर , गहराने लगा भीतर  ....तो मुरलीमनोहर की वेणु का स्वर .........प्राण कैसे संभलते होंगें न !......ना जाने क्या क्या भाव उद्वेग हो रहे हिय में । यह संगीत ...यह मधुरता ....यह मिठास कहाँ थी !.....इसी वातावरण में ही तो व्याप्त थी न !.....पर छिपी छिपी ....आया कहीं से कोई चितेरा स्वर का और प्रकट होने लगा यह माधुर्य जो प्रकृति के कण कण में समाया है .....कितना अद्भुत है न ! ....कुछ क्षण पहले तक कहाँ था यह संगीत ....पर जैसे शांत सागर में किसी ने हवा के झोंके से तरंगों को जन्म दे दिया हो ....सदा व्यक्त होने को आतुर कि बस छुओ अति कोमलता से इसे और व्यक्त हो उठे यह रसप्रवाह ........कितना मधुर .....कैसा सारगर्भित .....वे भी तो इसी भांति छिपे हैं अपनी प्रकृति के कण कण में .......बस एक चितेरे की प्रतीक्षा करते हुये कि आये वह और छेड दे उस प्रेम राग को और वे ऐसे ही लहराने लगें अन्तस्थल में जैसे बंसरि की यह मधुरिमा लहरा रही मेरे अन्तर्मन में ........

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