श्रीप्रिया-तृषा
श्रीकृष्ण रसराज है संपूर्ण चराचर समस्त जीव सत्ता के लिये , परंतु तृषित हैं केवल श्री राधिका के समक्ष और श्री किशोरी भावित सेवा-सेविकाओं समक्ष । जिनके भी लिये श्री कृष्ण मन और इंद्रियगम्य होतें हैं मात्र रस रूप ही रसराज रूप ही सेवन करतीं समस्त इंद्रियाँ और मन वहाँ । परंतु श्री प्रियाभाव मात्र ही तृषित हैं श्रीकृष्ण तृषा की । श्री श्यामा भी तृषित हैं , श्री श्याम भी ...और जीव भी । परंतु सबकी तृषा है भिन्न- भिन्न । मूल में जीव तृषित है रस का और श्री श्याम तृषित प्रेम के सार सुधा के और प्रेम सार सुधा स्वरूप श्री श्यामा तृषित श्रीश्यामसुंदर की तृषा की । श्री प्रिया के नेत्र और प्रत्येक इंद्रिय ही नहीं वरन रोम रोम तृषित श्री प्रियतम तृषा के । उनका रोम रोम पान करता मात्र श्री कृष्ण हृदय की अनन्त अगाध अपार तृषा का । रसपान नहीं तृषा पान । श्री प्रियतम पर अनन्त सुख वर्षा करती श्यामा उनके सुख की नहीं अपितु सुख-अभाव की तृषित स्थिति को ही छूती है । जीव पान करता है रस का सो रसराज हैं वे , परंतु श्रीश्यामा पान करती हैं कामना करतीं हैं , तृषित रहती हैं प्यारे की हृदय तृषा की ।
रस की और धावित जीव की चेतना आस्वादन और सुख चाहती है वह अपनी सुख-चिंता का पथ है ।
प्रेमास्पद के सुख की चिंता का पथ है तृषापान । तृषा पथ दृश्य ही वहां होता है जहाँ अपने सुख-रस की अपेक्षा श्रीश्यामाश्याम के सुख की लालसा रहती है ।
तृषा के पथ पर अनन्त रस वर्षा है , परन्तु सेवक रसभोग नहीं रख कर उस अनन्त वर्षित रस की सेवार्थ तृषित है ।
क्या किसी जीव ने वर्षा जल में भीगने के सुख को भुला कर एक-एक बिन्दु की सेवा स्वागत की लालसा की । रस पथ पर तृषा (प्यास) पी जाती है , प्रेमास्पद की तृप्ति हेतु अतृप्ति पी जाती है । प्रेमास्पद के तोष हेतु असन्तोष पिया जाता है । प्रेमास्पद के रस हेतु तृषा पी जाती है । प्रेमास्पद के सुभाव हेतु अभाव पिया जाता है । प्रेमास्पद के प्राण सुख हेतु स्वयं को क्षण-क्षण बलिहारा जाता है । जीव भोग चाहता है सो तनिक आस्वादन मिलते ही उसे लगता है वह पा गया सब कुछ । सेवक सेवा में रहते हुये नित्य क्षण सेवा ही चाहता है । सेवा उच्चतम स्थिति है । अपना आस्वादन तो कही प्रकट हो सकता है इस पथ पर । छबि दर्शन से भी आस्वादन हो सकता है । तृषित । ...और तृषा प्रकट होती है , सन्मुख श्रीप्रियतम के सुख की लालसा मात्र से अभिन्न होने पर ।
...आह ! प्यारे मोहे अपना हृदय पिला दो । अपना मन मोहे दे दो जीवन निधी मेरे । सर्वस्व मेरे ! तुम्हारा मन मोहे दे दो । तुम्हारे हृदय की एक एक वृति मुझमें भर दो प्राणपुष्प मेरे । क्यों ! हाँ प्यारे तोरा मन मो में होगा तभी तो तुम्हारे मन की होगी । हाँ प्राण वल्लभ तुम्हारे हृदय की तृषा की तृषित हूँ । तुम्हारे नेत्रों से झलकती एक एक बूंद मेरे हृदय की प्राणों की अनन्त प्यास है । अपनी प्यास पिला दो मोहे । मेरी समस्त इंद्रियाँ मेरा रोम रोम हे कृष्ण तुम्हारी तृषा ही पीती रहे सदा सर्वदा । एक एक रोम महासिंधु सा हो जावे उस तृषा को समेटने के लिये जिसमें भरती रहूं अपने प्यारे की तृषा को । क्या करुँ हृदय सार कि ये तृषा तुम्हारी मेरी हो जावे ।मेरी प्यास तुम्हारा हृदय है प्यारे तुम्हारा मन है उस मन की एक एक वृत्ति है । हे कृष्ण कैसे कहुँ प्यारे अपनी इस तृषा को तोहे । क्या समझेगा कोई इसे । कैसे वाणी में सहेजूँ इस भावना को प्रियतम । चाहती हूँ प्यारे तुम्हारा मन तुम्हारा हृदय कि....
जयजयश्रीश्यामाश्याम जी ।
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