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रास की रात्रि... रस की रात्रि

रास की रात्रि .....
रस की रात्रि ............

आज रास की रात्रि ह्वै , रस की रात्रि ह्वै , उज्जवल रस की उज्जवल रात्रि ह्वै । शुभ्र धवल ज्योत्सना , अमृत की बूंदों को लिये हुये छिटक रही ह्वै श्रीवृंदावन की यमुना पुलिन पर ........ना !  ....ना यह चंद्र प्राकृतिक ह्वै , ना , या से छिटक रही चंद्रिका .....  आज को चंद्र तो , ब्रजचंद्रश्रीकृष्णचंद्र का मन ह्वै ........रासबिहारी का मन ही इस शरद रात्रि में नभ पर चंद्ररूप प्रकाशित हुओ ह्वै । श्रीश्यामसुंदर का प्रेम सुधा से सुगंधित मन , आज रात्रि ने परम सौभाग्य जान निज अंक माहिं धारण करयो ह्वै । इस पूर्णचंद्र से छलकती अमृतराशि , नन्दतनय के ह्रदय का गाढ , राग अनुराग महाभाव ह्वै , जो आज सम्पूर्ण प्रकृति को ही महाभाविनी के आह्लाद से सिक्त किये देय रहा ह्वै .....लता लता पुष्प पुष्प पत्ता पत्ता बूंद बूंद ........सब उसी महान आह्लाद में नृत्य कर रहे ह्वैं । पुलिन पर बिछी रज को कण कण उसी शुभ्र चंद्रिका से रजत दर्पण सम आह्लाद को अनन्त गुणित कर बिखेर रहा ....... श्रीकृष्ण ह्रदय का यही आह्लाद , निश्म्यगीत बनकर गोपियों के ह्रदय में अनंग का वर्धन करने वाला ह्वै । श्रीश्यामसुंदर का रासोल्लास , प्रति गोपी के मन में उत्साह हो छलकने को तत्पर ह्वै .......गोपी !.....ना अब गोपी कहां रही वो , तो महाभाविनी के अनन्त सिंधु की इठलाती बूंद हो चुकी ह्वै , जो तरंग मालाओं के संग झूम झूम कर महाभाव सिंधु पर खेलते चंद्रमा का रसार्चन करने को लालायित होय रही । ज्यूँ सागर की लहरें ऊँची उठती , उस नभ चंद्र को स्पर्श कर भिगो देने को आकुल होय , वैसे ही महाभाविनी की रस तरंगें इन वृंदावनचंद्र को प्रेम सुधा से सिंचित करने को प्रति हिय में उछल रही ह्वैं .....एक ही सागर की अनन्त लहरों पर प्रतिबिम्बित होते चंद्रमा जैसे , प्रति हिय की रस उर्मि से भींजते ये श्रीकृष्णचंद्र ...और आकाश में खिले चंद्र की भांति , अपनी सम्पूर्ण चंद्रिका की रससारसमोज्जवला श्रीरासेश्वरी के संग , मध्य में मुस्कुराते हुये मुग्ध हुये रूप रस के सिंधु में डूबे हुये भी........रासेश्वरी की उज्जवल मुस्कान ही आज सहस्त्रों रूप हो थिरक रही चहुँ ओर । प्रियतम को सर्वत्र प्रिया जु दृश्य हो रहीं और प्रिया जु को सर्वत्र प्रियतम ......कैसो अद्भुत अपूर्व छटा छायी पुलिन पे ......महाभाव और रसराज ही सर्वत्र , शब्द स्पर्श रूप रस और गंध हो , रास कर रहे ......... कि कण कण में श्रीयुगल ही विलस रहे .........ना अन्ये ! अन्य कोई ह्वै ही नाय , यही नील पीत दुति धवल चंद्रिका बिखेरती थिरक रही चहुँओर .......

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