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छूत को रोग ...

छूत को रोग ... ..

हाँ सखि री , जे मयूरमुकुटी का आकर्षण छूत का रोग ही तो ह्वै.....अब कोई आपत्ति मति करियो जी हमपे.....हम साँचि कहे रहे । तुम कहोगे कि कैसे !......तो कहो छूत को रोग कैसे फैले !.......देखन ते ......पास बैठवे ते .....झूठन पावे ते .....छुअन ते , तो या श्यामल के आकर्षन माहीं कैसो बावरो ह्वै रह्यो सबरो जगत ......नाय मानो तो करिके देख ल्यो.......देख ल्यो तनिक या की त्रिभुवन कमनीय रूप रासी को........तनिक निहार ल्यो वो टेढो सो मोर मुकुट .......वो भाल पर फहरति केशरासि .......वो रस ते भरे बिसाल कमलदल लोचन ........वो मुस्कुराते तिरछे अधर ........वो टेढो सो पग और उनमें इठलाते वो टेढो नूपुर .......वो पीताम्बर .........वो चरनन चूमतीं गुंजमाल .........जादू बिखेरती रूप माधुरी ...........सारेजादू टोना फीकों ह्वैं या के आगे , जो नाय सुधि बिसर जावे तो कहियो .......जिस भाव सो देखन चाहो सो देखियो , वही रूप नैनन सो होय हिय में उतर जावेगा जी .......और जो तनिक भाव कू अंजन आंज लियो , तब तो बस ........घर फूकवें की तैयारी करि ल्यो ........और कहा ते फैले ,पास बैठवे ते ......तो जो कानन माहीं परी गई या की लीला माधुरी , और जो कानन ते हिय तक ले गये  .......वो नटखट नन्दतनय की बाल चपलता ......वो माखन की चोरी ...वो सखान संग ऊधम .....वो गोपिन सौं बरजोरी ......वो या के मुख ते निकसने वारी मीठी गारी आह !...........हिय पिघलकर बह न जाय ........वो मैया के भय ते थर थर कांपनो ....वो बिसाल कमल दल लोचनों मांही अश्रु भरि  लानो  ......वो बछरों की हुंकार पे बोल उठनो .....वो लताओं में छिपकर , छिपे रहवे का भी धीरज नाय रख पानो .......वो कर हिलाय हिलाय बतानो कि मैं यहाँ छिपा हूँ  ........वो नित खेल में हारवे पर झूठो नाम लगानो.........वो नित खेल में कलह करनो .....वो नित खेल बिगारनो ......वो नित रूठनो .......वो नित उलाहनो देनो ......वो नित सखान की हा हा खानो .....वो नित मनानो......वो नित सखान को सजावे ताईं झगरनो ........वो नित सखाओ के प्रेम पे बलि बलि जानो.....वो नित जिद करनो ......वो मीठी खीर को चखने ते पहिले ही पूछनो कि "खट्टी तो ना ह्वै"..........वो दिन भर कपि , केयूर , शशकों के पाछे पाछे भागनो , .......वो कोकिल के स्वर की नकल करने का असफल प्रयास करनो ........वो ......मयूरों से  ठुमकने की होड लेनो ...........वो सारो गोकुल नन्दगाम कू रस माही डुबाय देनो .......वो शिव सनकादिकहुं तक को ललचानो ..........कहां तक कहुं जी !............खिंचने लगा ना जी या में ! ......तभी तो या कू नाम कृष्ण ह्वै । और कहा ते कहुं.......झूठन ते !.......झूठन माने जो रोगी के अधरन ते स्पर्श भयो .....तो वा है या को मधुर मधुर नाम ....आह !...नाम माधुरी  .....कृष्ण , कान्ह , कन्हाई , नन्दनन्दन, बृजराजकिसोर ,गोपाल ,कन्हैया , गिरीराजधरण , नन्दलाल ,माधव मुकुन्द ,श्यामसुंदर  नीलमणि  .........चाहें जो नाम धरो जिह्वा पे , मीठो करि देवेगो और ऐसो रस की चटपटी लगाय देगो कि छूटेगो ही नाय । और !.....छुअन ते ना !......तो छूय ल्यो नेक बृज की प्रेम सौं पगी रजरानी को ........सीस ते धरो , हिये पे पधराओ , और जो अधिक डूबन को साहस हो तो हिय माही उतार ल्यो या बृजरज को स्वाद .........ज्यों हिय में विराजित नन्दकुंवर को स्पर्श मिल गयो ना या रज कू ........तो फिर लोटे लोटे फिरनो पडेगो बृजधूरि माहीं ............अरी ये ऐसो वैसो रोग नाही ह्वै ......जो पकड लेगो तो छुटाय ना छूटेगो .........हा हा खाओ चाहें , भरि भरि रोओ , कोऊ विद्या , कोऊ चातुरी काम ना आवेगी । पर टेक नेक इत्ती सी ह्वै कि , हिय ..........हिय जैसो होवे तबहीं हिय रोग लगेगो ........

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