रूपमाधुरी नन्दतनय की ........
श्रीश्यामसुंदर की रूप माधुरी .......आहा ! क्या वर्णन संभव है श्रीप्यारेजू की अनिर्वचनीय रूपराशि का ....अनन्त सौंदर्य की अनन्त पयोधि श्रीकृष्ण रूप ........माधुर्यता , लावण्यता कमनीयता का परम सार यह श्रीनागर जू का असमौर्ध्व सौंदर्य । यह सौंदर्य , रस का ऐसा सिंधु है जिसका नन्हा सा कण जो छलके तो, संपूर्ण त्रिभुवन को ना केवल रस में निमज्जित कर दे , वरन इसकी मधुरिमा क्षणार्ध में ही समस्त लोकों को डुबा लेवे । कहीं किसी लोक में भी इस रूप की उपमा ही नहीं कोई .....मन को हरने वाला ... ... चित्त को हरने वाला ... ... हृदय को हरने वाला ... ....सर्वस्व को हर लेने वाला , यह सर्वस्व का आकर्षण कर लेने वाला मनोहर रूप .............सौंदर्यलावण्यरसामृतसारसिंधु श्रीकृष्ण रूप छटा , पूर्णचंद्र की कांति , नव कुसुमित कुमुद की प्रथम स्निग्धता , आकाश की नीलिमा , जल की सरसता , पवन की शीतलता , कोकिला की मधुरवता, नवबौर की सुंगधि , शिशु की सरलता ........ना जाने कहाँ कहाँ और कितने रूपों में बिखरी हुयी है । श्रीनन्दतनय का अद्भुत रूप सहज ही देखने वाले के हिय में काम (दिव्य प्रेम ) का उद्दीपन करता है । सुंदर दिव्य आभूषणों से भूषित अंगों वाले श्रीवृंदावनकिशोर जब ललित त्रिभंगी हो ठाढ़े रहते हैं , तो सकल ब्रज वनितायें अपने तन मन प्राण हार जातीं हैं ।आहा ! क्या बखाना जावे उस रूपसिंधु की अनन्त उत्ताल तरंगों को , जिनमें सदा श्रीकीर्तीकुमारी के हृदय रूपी वित्त को चुराने की होड़ लगी रहती है। इंद्रधनु की सतरंगी छटा को लजाता शिखिपिच्छ मुकुट , धनुष सी भृकुटि का अद्भुत नर्तन , कमल की अर्ध मुकुलित कलिका से नेत्रों की तिरछी कोरों से चलाये जा रहे बाण..........बिंबफल से अधरों पर तिरछी मुस्कान , कपोलों को चूमती अलकावलियाँ , विशाल वक्षस्थल पर मरालपंक्ति सी सुशोभित होती मणिमाला , श्रीअंग पर फहराता विद्युतलता सम पीतांबर , केहरि सी लंक , बदन मयंक , वो तिरछे चरण और उनमें झंकृत होते रसालय नूपुर ........श्रीवृंदावनेश्वरी सहित समस्त गोप बालाओं के हृदय का बेधन करने में परम निपुण हैं । नवघनसुंदर श्रीअंग पर फहराता पीतांबर ......जैसे मेघों में दामिनी कौंध रही हो। मन्मथ के मन को मथ देने वाले ये मदनमोहन , मानों पंचशर के दर्प को चूर करने को उद्धृत हैं ........नित्य नवीनरस से भरे श्यामजलधर अपनी रसमयी लीलाओं के पीयूष वर्षण से संपूर्ण जगत को रससिक्त करने वाले.....श्रीब्रजराजकिशोर जब निज सखाओं के संग वन विहार करते समय , गौओं को चराते हुये , अधरों पर वेणु को पधरा कर निज हृदय गीत को मधुर स्वर में गाते हैं , तो स्थावर ,जंगम ,जड चेतन समस्त चराचर पुलकित हो रस प्लावित हो उठता है । निज धर्म से च्युत हो जड चेतन अरु चेतन जड हो जाते हैं ......
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